दुर्लभ साध कळू में पूरा

durlabh sadh kळu mein pura

बाबा रामदेव

बाबा रामदेव

दुर्लभ साध कळू में पूरा

बाबा रामदेव

और अधिकबाबा रामदेव

    दुर्लभ साध कळू में पूरा,

    ज्यांरी कळजुग जातां करूं संभाळ॥

    भूल्या जिकै किण विध मिळसी,

    आद गुरु रा मान्या नी उपकार।

    सीखे सबद अरथ नईं जाणे,

    वां नुगरां नै देस्यूं टाळ॥

    सीखे सबद भेद नई पावै,

    तन मन दरसै दोय निजार।

    आत्म बिना असल नई मांनै,

    ऊघै मारग हालै संसार॥

    सूझै साच ऊदर रह उळटा,

    वायक धरम बिना करै बोवार।

    भेट भरम रांम नई मांनै,

    विषयां तणा करै व्यभिचार॥

    पुळ बिना पाट किण विध पूरै,

    रहणी कळस धरम उपकार।

    पांच सबद बिना पड़दो बांधै,

    मांनै नई असल आधार॥

    साधु जिकै सरव गत हालै,

    समझ गुरां रा पूजै पांव

    करणी बिना रहे कण काचा,

    नेम बिना दरसै निराधार॥

    बैठो साधु भेष कर,

    कांई पूजै, आंधो संसार।

    बुगला काग करै कचरोळो,

    बाचाहीण व्है बेकार॥

    बैठो जोगी अलख कर पूजै,

    सूझै नई सबद री सार।

    निकळंक केरी पेड़ियां दुख पावसी,

    गुपत पड़ै गुरजां री मार॥

    गुपत रिया तीनों जुग पै'ली,

    प्रगट भयो कळि अवतार।

    ओगण करै असल नई मानै,

    साध कळू सूं देस्यूं टाळ॥

    एक बूंद रौ अमर प्यालो,

    दूजो है कळजुग रौ काळ।

    रोळम रोळ भरम कर भूल्या,

    वां नुगरां नै देस्यूं टाळ॥

    दोय पुरषां सूं सुर नर सीध्या,

    दोय पुरषां सूं जती अवतार।

    अजर अमर म्हारौ दुर्लभ पूजो,

    अमर दान झेलै सचियार॥

    पड़दे धरम अलख री पूजा,

    शिव नगरी पूगा सचियार।

    पेड़ी पांच धरम तुलै,

    आगे अलख धरम है अपरंपार॥

    आद अलख रा अथंग प्याला,

    नेम धरम री बांधी पाळ।

    चवदह लोक असंख जुग ऊपर,

    निकळंक प्यालो अखै निजार॥

    'रांम कंवर' लखै निज नामा,

    शिवजी सबद करै उपकार।

    बारह किरोड़ नै कदी नईं विसरूं,

    असंग जुगां रा म्हारी लार॥

    कलियुग में सच्चे साधु अति दुर्लभ हैं, कलियुग के चरमोत्कर्ष पर मैं इनको संभालूँगा। किंतु जो साधु अपना मार्ग भूल गए वे मोक्ष प्राप्ति नहीं कर सकते, जिन्होंने सद्गुरु का उपकार नहीं माना। शब्द-ज्ञान तो प्राप्त किया किंतु उसका अर्थ ग्रहण नहीं किया, इस प्रकार के कृतघ्न लोगों को मैं अपने भक्त समूह से बहिष्कृत कर दूँगा। जो लोग शब्द-ज्ञान तो सीखते हैं परंतु उसका रहस्य नहीं जानते, उनको द्वैतभाव का आभास होता है। आत्म-ज्ञान के अभाव में वे वास्तविक स्वरूप को नहीं मानते और ये सांसारिक लोग ज्ञान की विपरीत दिशा में चलते हैं। जब तक प्राणी गर्भावस्था में अधोमुखी रहता है तब तक उसे सत्य का भान रहता है, किंतु जन्म के बाद संसार में आते ही वह अधर्म का क्रियाकलाप शुरू कर देता है। वह भ्रमग्रसित हो जाता है, राम को भूल जाता है तथा विषयगामी बनकर व्यभिचार शुरू कर देता है। वैदिक विधान के अभाव में पूजा-पाठ कैसे संभव है! पाखंडी लोग कळस की स्थापना करके अपने मानव तन की शुद्धि नहीं कर सकते। शिव के कल्याणकारी पंचाक्षरी मंत्र (नमः शिवाय) का महत्त्व जाने बिना ही ये लोग मन-मुखी साधना द्वारा असफल योगाभ्यास करते हैं। जबकि योगसिद्धि का वास्तविक आधार ये नहीं जानते। सच्चे साधु तो वे हैं जो गुरु के निर्देशानुसार ही चलते हैं और उनके चरणों में निष्ठा रखते हैं। जिन लोगों का आचरण गुरु-मुखी नहीं है, उनकी करणी सार्थक नहीं है, वे कर्मयोग को नहीं जानते जिसके अभाव में उनका मानव तन निरर्थक हो जाता है। पाखंडी साधुओं की पूजा करने वाले लोग भी अंधे हैं। इन पाखंडी साधुओं और अज्ञानी शिष्यों ने मानव समाज को बिगाड़ दिया है, यह ठीक ऐसा ही है जैसे कि कौए और बगुले इकट्ठे होकर कांय-कांय करते हैं। अज्ञानी लोग भी तत्त्वहीन वाणी से अपने जीवन को व्यर्थ खो रहे हैं। ये अज्ञानी लोग पाखंडी को भी अलख का रूप मान कर पूजने लग जाते हैं, और शब्दों का सार तत्त्व नहीं खोजते हैं। ऐसे आडंबरी लोग भगवान् निष्कलंकी के दरबार में दंड भोगेंगे। पिछले तीन युगों से ऐसे लोग गुप्त रूप से रहते आए हैं। अब मैं कल्कि अवतार के रूप में प्रकट होकर इन पाखंडी और कृतघ्न लोगों को सच्चे साधुओं से पृथक कर दूँगा। सच्चा साधु ज्ञानामृत का प्याला है और पाखंडी साधु कलियुग के प्रतीक हैं। अपने अनुशासनहीन व्यवहार से इन लोगों ने समाज को भ्रमित किया है, मैं इन कृतघ्न लोगों की पहचान कराऊँगा। सद्गुरु के सच्चे शिष्य बनकर देवगण भी सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसी रूप में अनेक यति तथा अवतारी लोग भी सिद्धि को प्राप्त हुए। सद्गुरु से आत्मज्ञान प्राप्त करके अजर-अमर-अविनाशी ईश्वर की पूजा करो, अति दुर्लभ आत्म-ज्ञान की साधना करो, इस ज्ञान का प्रसाद विवेकशील लोग ही प्राप्त करते हैं। अलख की साधना करना ही इस नर-तन का धर्म है। इसकी आराधना से लोग शिव नगरी में पहुँचे हैं। जो योग साधना द्वारा कुंडलिनी को पाँच तत्त्वों से निर्मित मानव तन रूपी महल की पेड़ियों अर्थात् विविध सोपानों से पार करके आगे ब्रह्मरंध्र में मिला देते हैं, वहीं अलख-अगोचर परब्रह्म के दर्शन होते हैं। अलख अगोचर की यह साधना अति प्राचीन और अथाह है। आज तक इस साधना की पूर्ण थाह किसी ने नहीं ली। यही साधना धर्म-नियम की पाज है। इस साधना की सिद्धि द्वारा मानव कालातीत, निष्कलंक और अक्षय हो जाता है। रामदेवजी कहते हैं कि आत्म-ज्ञान की साधना से ही शब्द ब्रह्म की प्राप्ति संभव है, जो साधक अपने निज स्वरूप तथा निज नाम को समझ लेगा, उस पर परमशिव की कृपा होगी। मैं उन बारह करोड़ जीवात्माओं को कभी नहीं भूलूँगा, जिनकी मोक्ष का मैंने संकल्प किया था, जो अनेक युगों से मेरे साथ हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बाबै की वांणी (पृष्ठ 87)
    • संपादक : सोनाराम बिश्नोई
    • रचनाकार : बाबा रामदेव
    • प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार
    • संस्करण : 2015

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