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श्रीनरेश मेहता के उद्धरण

यह सापेक्ष समय जब बीतता है तो हमें वैसे ही तराशता चलता है जैसे कि जल अपनी मसृणता में भी, कैसी ही चट्टान क्यों न हो, शताब्दियों तक टकराते-टकराते अंततः ढहा कर रख देता है।

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