प्रेमचंद के उद्धरण
पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा।
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जो अपने घर में ही सुधार न कर सका हो, उसका दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।
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प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, ख़ूँख़ार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता।
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स्त्री और पुरुष में मैं वही प्रेम चाहता हूँ, जो दो स्वाधीन व्यक्तियों में होता है। वह प्रेम नहीं, जिसका आधार पराधीनता है।
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क्रोध अत्यंत कठोर होता है। वह देखना चाहता है कि मेरा एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहीं, वह मौन को सहन नहीं कर सकता।
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प्रेम जितना ही सच्चा, जितना ही हार्दिक होता है, उतना ही कोमल होता है। वह विपत्ति के सागर में उन्मत्त ग़ोते खा सकता है, पर अवहेलना की एक चोट भी सहन नहीं कर सकता।
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ईर्ष्या से उन्मत स्त्री कुछ भी कर सकती है, उसकी आप शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।
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जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए, उससे जितनी जल्दी हम अपना गला छुड़ा लें उतना ही अच्छा है।
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किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणी मात्र का धर्म है।
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आशा निर्बलता से उत्पन्न होती है, पर उसके गर्भ से शक्ति का जन्म होता है।
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स्त्रियों में बड़ा स्नेह होता है। पुरुषों की भांति उनकी मित्रता केवल पान-पत्ते तक ही समाप्त नहीं हो जाती।
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जन-समूह विचार से नहीं, आवेश से काम करता है। समूह में ही अच्छे कामों का नाश होता है और बुरे कामों का भी।
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पसीने की कमाई खाने वालों का दिवाला नहीं निकलता, दिवाला उन्हीं का निकलता है जो दूसरों की कमाई खा-खाकर मोटे होते हैं।
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धर्म ईश्वरीय कोप है, दैवीय वज्र है, जो मानव जाति के सर्वनाश के लिए अवतरित हुआ है।
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यह ज़माना ख़ुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत भी न पूछेगा।
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वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राण-पोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम वसंत समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू।
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जैसे ईख से रस निकाल लेने पर केवल सीठी रह जाती है, उसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय से प्रेम निकल गया, वह अस्थि चर्म का एक ढेर रह जाता है।
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काम करके कुछ उपार्जन करना शर्म की बात नहीं, दूसरों का मुँह ताकना शर्म की बात है।
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प्रतिभा तो ग़रीबी ही में चमकती है, दीपक की भाँति जो अँधेरे में अपना प्रकाश दिखाता है।
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कविता सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएँ चाहे वे दुःख की हो या सुख की, उसी समय संपन्न होती है जब हम दुःख या सुख का अनुभव करते हैं।
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आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है। परिणाम का भय तर्क से नहीं होता, वह पर्दा चाहता है।
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किसानों को विडंबनाएँ इसलिए सहन करनी पड़ती हैं कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बंद हैं।
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कवि वह सपेरा है जिसकी पिटारी में सर्पों के स्थान पर हृदय बंद होते हैं।
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संयम वह मित्र है, जो ज़रा देर के लिए चाहे आँखों से ओझल हो जाए, पर धारा के साथ बह नहीं सकता, संयम अजेय है, अमर है।
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जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दंड मिलता है, उसी प्रकार सज्जनता का दंड पाना अनिवार्य है।
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स्त्रियों में शारीरिक सामर्थ्य न हो, पर उनमें वह धैर्य और मिठास है जिस पर काल की दुश्चिंताओं का ज़रा भी असर नहीं होता।
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मज़हब रूहाना तस्कीन और निजात का ज़रिया है, न कि दुनिया के कमाने का ढकोसला।
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पश्चिम में जो चीज़ें अच्छी है, वह उनसे लीजिए। संस्कृत में सदैव आदान-प्रदान होता आया है; लेकिन अच्छी नक़ल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है।
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दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है और उनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाते हैं।
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अश्रु-प्रवाह तर्क और शब्द-योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता।
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ग़रीबों में अगर ईर्ष्या या बैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या या बैर को मैं क्षम्य समझता हूँ।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere