Font by Mehr Nastaliq Web
noImage

अकबर इलाहाबादी

1846 - 1921

उर्दू में हास्य-व्यंग के सबसे बड़े शायर , इलाहाबाद में सेशन जज थे।

उर्दू में हास्य-व्यंग के सबसे बड़े शायर , इलाहाबाद में सेशन जज थे।

अकबर इलाहाबादी का परिचय

उपनाम : 'अकबर'

मूल नाम : सय्यद अकबर हुसैन रिज़वी

जन्म : 16/11/1846

निधन : 09/09/1921

अकबर इलाहाबादी हिन्दुस्तानी ज़बान और हिन्दुस्तानी तहज़ीब के बड़े मज़बूत और दिलेर शायर थे। उनके कलाम में उत्तरी भारत में रहने-बसने वालों की तमाम मानसिक व नैतिक मूल्यों, , तहज़ीबी कारनामों, राजनीतिक आंदोलनों और हुकूमती कार्यवाईयों के भरपूर सुराग़ मिलते हैं। अकबर की शायरी ज़माना और ज़िंदगी का आईना है। उनका अंदाज़-ए-बयान कहीं कहीं क़लंदराना, कहीं शायराना, कहीं तराश-ख़राश के साथ, कहीं सादा, कहीं पारंपरिक और कहीं आधुनिक और इन्क़िलाबी है। अकबर पारंपरिक होते हुए भी बाग़ी थे और बाग़ी होते हुए भी सुधारवादी। वो शायर थे, शोर नहीं मचाते थे। ख़वास और अवाम दोनों उनको अपना शायर समझते थे। उनकी शायरी दोनों के ज़ौक़ को सेराब करती है। उनका कलाम मुकम्मल उर्दू का कलाम है। शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी के अनुसार मीर तक़ी मीर के बाद अकबर इलाहाबादी ने अपने कलाम में उर्दू ज़बान के सबसे ज़्यादा अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं। अकबर शायर पहले थे कुछ और बाद में। उन्होंने अपने दौर में न मौलवियों को मुँह लगाया न पश्चिम के लाभ से प्रभावित हुए, न अंग्रेज़ हाकिमों की पर्वाह की और न लीडरों को ख़ातिर में लिए। उस दौर में कोई व्यक्ति ऐसा न था जिसने अंग्रेज़ का मुलाज़िम होते हुए उसकी ऐसी ख़बर ली हो जैसी अकबर ने ली।

अकबर की शायरी को महज़ हास्य शायरी के खाते में डाल देना अकबर के साथ ही नहीं उर्दू शायरी के साथ भी नाइंसाफ़ी है। ग़ज़ल क़ता, रुबाई और नज़्मों की शक्ल में अकबर ने जितना उम्दा कलाम छोड़ा वैसा आधुनिक युग के किसी शायर के हाँ मौजूद नहीं। उन्होंने ग़ज़ल की पारंपरिक विधा में इन्क़िलाबी तजुर्बे किए। वो आकृति के तजुर्बे क़बूल करने में इतने आगे निकल गए कि एक ही नज़्म में विभिन्न बह्रों और विधाओं को एकत्र कर दिया। उन्होंने ब्लैंक वर्स (मोअर्रा नज़्म) में भी अभ्यास किया और अपने दौर के दूसरे शायरों से बेहतर आज़ाद नज़्में लिखीं। इस सिलसिले में उनकी नज़्म “एक कीड़ा” मार्के की चीज़ है। उनकी नज़्मों में नवीनता और कलात्मकता का जो मिश्रण है वो इक़बाल के सिवा उर्दू के किसी शायर के हाँ नहीं मिलती। अकबर पहले शायर हैं जिन्होंने ज़बान के आम अलफ़ाज़ ऊंट, गाय, शेख़, मिर्ज़ा, इंजन वग़ैरा का प्रतीकात्मक इस्तेमाल किया और उर्दू में प्रतीकात्मक शायरी की राह हमवार की। साहित्यिक रूचि रखने वालों के लिए उनके कलाम में ख़ुश फ़िक्री, परिहास, ज़बान-ओ-ख़्याल पर क़ुदरत, शाब्दिक व आर्थिक कलात्मकता सभी कुछ है। ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने वालों के लिए उन्होंने समाज और सभ्यता की पेचीदगीयों और शरीर व आत्मा के दर्शन की हक़ीक़तों से पर्दा उठाया है और सियासतदानों को तो उन्होंने उनका असल चेहरा दिखाया है। अकबर पहले शायर हैं जिनके हाँ औरत कभी फ़िरंग की नाज़नीं और कभी थियेटर वालियों की शक्ल में, अपने पूरे वजूद के साथ ख़ुद को दिखाती हुई नज़र आती है और जो उर्दू शायरी की रिवायती महबूबाओं से बिल्कुल भिन्न है। इश्क़-ओ-रूमान के मुक़ाबले में दृष्टिगत तीक्ष्णता का जो अंदाज़ अकबर के यहां मिलता है वो उर्दू शायरी में अनोखी चीज़ और अपनी मिसाल आप है। अकबर उर्दू के पहले शायर हैं जिसका दिल तो बहुतों पर आता है (मिरा जिस पारसी लेडी पे दिल आया है ए अकबर/ जो सच पूछो तो हुस्न-ए-बंबई है उसकी सूरत से) लेकिन जिसकी असल महबूबा एक शादीशुदा औरत है जो उसकी अपनी बीवी है (अकबर डरे नहीं कभी दुश्मन की फ़ौज से/ लेकिन शहीद हो गए बेगम की नौज से)। अकबर के “फ़र्स्ट” की फ़ेहरिस्त काफ़ी लम्बी है।

सय्यद अकबर हुसैन इलाहाबादी 16 नवंबर 1846 ई. को ज़िला इलहाबाद के क़स्बा बारह में पैदा हुए। वालिद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन नायब तहसीलदार थे। अकबर की आरंभिक शिक्षा घर पर हुई। आठ नौ बरस की उम्र में उन्होंने फ़ारसी और अरबी की पाठ्य पुस्तकें पढ़ लीं। फिर उनका दाख़िला मिशन स्कूल में कराया गया। लेकिन घर के आर्थिक स्थिति अच्छी न होने की वजह से उनको स्कूल छोड़कर पंद्रह साल की ही उम्र में नौकरी तलाश करना पड़ी। उसी कम उम्री में उनकी शादी भी ख़दीजा ख़ातून नाम की एक देहाती लड़की से हो गई लेकिन बीवी उनको पसंद नहीं आईं। उन्होंने एक तवाएफ़ बूटा जान से शादी भी कर ली लेकिन उसका जल्द ही इंतिक़ाल हो गया जिसका अकबर को सदमा रहा। अकबर ने कुछ दिनों रेलवे के एक ठेकेदार के पास 20 रुपये माहवार पर नौकरी की फिर कुछ दिनों बाद वो काम ख़त्म हो गया। उसी ज़माने में उन्होंने अंग्रेज़ी में कुछ महारत हासिल की और 1867 ई. में वकालत का इम्तिहान पास कर लिया। उन्होंने तीन साल तक वकालत की जिसके बाद वो हाईकोर्ट के मिसिल ख़वाँ बन गए। उस अरसे में उन्होंने जजों-वकीलों और अदालत की कार्यवाईयों को गहराई के साथ समझा। 1873 ई. में उन्होंने हाईकोर्ट की वकालत का इम्तिहान पास किया और थोड़े ही अरसे में उनकी नियुक्ति मुंसिफ़ के पद पर हो गई। ।1888 ई.में उन्होंने सबार्डीनेट जज और फिर में ख़ुफ़िया अदालत के जज के पद पर तरक्क़ी पाई और अलीगढ़ सहित विभिन्न स्थानों पर उनके तबादले होते रहे।1905 ई.में वो सेशन जज के ओहदे से रिटायर हुए और बाक़ी ज़िंदगी इलाहाबाद में गुज़ारी। रिटायरमेंट के बाद उनकी दूसरी बीवी ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रहीं। अकबर इस सदमे से सँभल नहीं पाए थे कि दूसरे बीवी के से पैदा होने वाला उनका जवाँ-साल बेटा, जिससे उनको बहुत मुहब्बत थी, चल बसा। इन दुखों ने उनको पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया और वो निरंतर बीमार रहने लगे। फ़ातिमा सोग़रा से अपने दूसरे बेटे इशरत हुसैन को उन्होंने लंदन भेज कर शिक्षा दिलाई। पहली बीवी ख़दीजा ख़ातून 1920 ई. तक ज़िंदा रहीं लेकिन उनको “इशरत मंज़िल” में क़दम रखने की कभी इजाज़त नहीं मिली। 1907 ई. में सरकार ने अकबर को “ख़ान बहादुर” का ख़िताब दिया और उनको इलाहाबाद युनिवर्सिटी का फ़ेलो भी बनाया गया। अकबर का 9 सितंबर1921ई. को देहांत हुआ। 

अकबर को उर्दू शायरी में हास्य-व्यंग्य का बादशाह माना जाता है। उनसे पहले उर्दू शायरी में तंज़-ओ-मज़ाह, रेख़्ती या निंदा की शायरी के सिवा, कोई अहमियत और तसलसुल नहीं हासिल कर सका था। अकबर ने तेज़ी से बदले हुए ज़माने को सावधान करने के लिए हास्य-व्यंग्य का नया विधान अपनाया। अकबर के व्यंग्य का उद्देश्य तफ़रीह नहीं बल्कि उसमें एक ख़ास मक़सद है। अकबर की दूर-अँदेश निगाहों ने देखा कि दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है और इस वक़्त जो समुदाय पैदा हो रहा है उसको पश्चिमीलोभ बहाए लिए जा रही है और लोग अपनी हिन्दुस्तानी मुलयों को तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगे हैं। उन्होंने अपनी शायरी को मुल्क व राष्ट्र की सेवा की तरफ़ मोड़ते हुए एक नया अंदाज़ इख़्तियार किया जिसमें वैसे तो ठिठोल और हास्य है लेकिन उसके अन्तःकरण में नसीहत और आलोचना है। वो अपनी शायरी को जिस रुख पर और जिस उद्देश्य के लिए लेकर चल रहे थे उसके लिए ज़रूरी था कि लब-ओ-लहजा नया, दिलकश और मनपसंद हो। ये एक ऐसे शख़्स का कलाम है जिसके चेहरे पर शगुफ़्तगी और ठिठोली के आसार हैं मगर आवाज़ में ऐसी आँच है जो हास्य को पिघला कर, दिलनशीं होने तक, गंभीरता का दर्जा अता कर देती है। अकबर के तंज़ का लक्ष्य कोई व्यक्ति विशेष नहीं होता। हर व्यक्ति प्रथमतः यही समझता है कि तंज़ किसी और की तरफ़ है लेकिन हंस चुकने के बाद ज़रा ग़ौर करने के बाद एहसास होता है कि अकबर ने हम सभों को मुख़ातिब किया था और जिसको हम मज़ाक़ समझ रहे थे उसकी तह में तन्क़ीद-ओ-नसीहत है। बात को इस नतीजे तक पहुंचाने में अकबर ने बड़ी कारीगरी से काम लिया है। अकबर ने उर्दू शायरी के उपेक्षित गोशों को पुर किया, अपने दौर के तक़ाज़ों को पूरा किया और भविष्य के शायरों के लिए नई राहें हमवार कीं। उनकी शायरी की अहमियत उनकी शायरी की ख़ूबीयों से बढ़कर है।

Recitation

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए