पाहुड़ दोहा-20

pahuD doha 20

मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-20

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    संतु दीसइ ततु वि संसारेहिं भमंतु।

    खंधावारिउ जिउ भमइ अवराडइहिं रहंतु॥

    उव्वस वसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु।

    वलि किज्जउ तसु जोइयहि जासु पाउ पुण्णु॥

    कम्मु पुराइउ जो खवइ अहिणव पेसु देइ।

    अणुदिणु झायइ देउ जिणु सो परमप्पउ होइ॥

    विसया सेवइ जो वि परु बहुला पाउ करेइ।

    गच्छइ णस्यहं पाहुणउ कम्मु सहाउ लएइ॥

    कुहिएण पूरिएण छिद्देण खारमुतगंधेण।

    संताविज्जि लोओ जह सुणहो चम्मखंडेण॥

    देखंताहं वि मूढ वढ रमियइं सुक्खु होइ।

    अम्मिए मुतहं छिद्दु लहु तो वि विणडइ कोइ॥

    जिणवरु झायहि जीव तुहुं

    विसयकसायहं खोइ।

    दुक्खु देक्खहि कहिं मि

    वढ अजरामरु पउ होइ॥

    विसयकसाय चएवि वढ अप्पहं मणु वि धरेहि।

    चूरिवि चउगइ णितुलउ परमप्पउ पावेहि॥

    इंदियपसरु णिवास्यिइं मण जाणहि परमत्थु।

    अप्पा मिल्लिवि णाणमउ अवरु विडाविड सत्थु॥

    विसया चिंति जीव तुहुं सिवय भल्ला होंति।

    सेवंताहं वि महुर वढ पच्छइं दुक्खइं दिंति॥

    संसार में भ्रमण करते हुए जीव को संत दिखता है और तत्व। वह पराए की रक्षा का भार अपने कंधों पर लेकर घूमता फिरता है।अर्थात् वह इंद्रियों तथा मनरूपी फ़ौज को साथ लेकर पर की रक्षा के लिए भ्रमण करता है।

    जो उजाड़ को तो बसाता है और बसे हुए को उजाड़ता जाता है, जिसे पुण्य है पाप। अहो, ऐसे योगी की बलिहारी है, मैं उनको बलि-बलि जाता हूँ।

    जो पुराने कर्मों को खपाता है, नए कर्मों को आने नहीं देता और प्रतिदिन जिन-देव को ध्याता है, वह जीव परमात्मा बन जाता है।

    जो विषयों का सेवन करता है तथा बहुत पाप करता है, वह कर्म का सहारा लेकर नरक का पाहुना (मेहमान) बन जाता है।

    जैसे कुत्ता चमड़े के टुकड़े के मोह में हैरान होता है, वैसे ही मूढ़ लोग कुत्सित और क्षार-मूत्र की दुर्गंध से भरे शरीर के मोह में पड़कर संताप पाते हैं।

    मल-मूत्र का धाम यह मलिन शरीर, जिसके देखने से या जिसमें रमने से कहीं सुख तो नहीं होता, तो भी मूढ़ लोग कोई उसको छोड़ते नहीं।

    हे जीव! तू जिनवर की उपासना कर और विषय-कषायों को छोड़। हे वत्स! ऐसा करने से दु:ख तुम्हें नहीं दिखेंगे, और तू अजर-अमर पद को पाएगा।

    हे वत्स! विषय-कषायों को छोड़कर मन को आत्मा में स्थिर कर, ऐसा करने से चारों गतियों को नष्ट कर तू अतुल परमात्मपद को पाएगा।

    रे मन! तू इंद्रियों के फैलाव को रोक और परमार्थ को जान। ज्ञानमय आत्मा को छोड़कर अन्य जो भी शास्त्र हैं, वे तो वितंडावाद हैं।

    हे जीव! तू विषयों का चिंतन मत कर, विषय भले नहीं होते। हे वत्स! सेवन करते समय तो वे विषय मधुर लगते हैं, परंतु बाद में वे दु:ख ही देते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 42)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

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