पाहुड़ दोहा-8

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मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-8

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    अप्पा मिल्लिवि जगतिलु मूढ झायहि अण्णु।

    जिं मरगउ परियाणियउ तहु किं कच्चहु गण्णु॥

    सुहपरिणामहिं धम्मु वढ असुहइं होइ अहम्मु।

    दोहिं मि एहिं विवज्जियउ पावइ जीउ जम्मु॥

    सइं मिलिया सइं विहडिया जोइय कम्म णिभंति।

    तरलसहावहिं पथियहिं अण्णु कि गाम वसंति॥

    अण्णु जि जीउ चिंति तुहुं जइ वीहउ दुक्खरस।

    तिलतुसमितु वि सल्लडा वेयण करइ अवरस॥

    अप्पाए वि विभावियइं णासइ पाउ खणेण।

    सूरु विणासइ तिमिरहरु एक्कल्लउ णिमिसेण॥

    जोइय हियडइ जासु पर एकु नि णिवसइ देउ।

    जम्मणमरणविवज्जियउ तो पावइ परलोउ॥

    कम्मु पुराइउ जो खवइ अहिणव पेसु देइ।

    परमणिरंजणु जो णवइ सो परमप्पउ होइ॥

    पाउ वि अप्पहिं परिणवइ कम्मइं ताम करेइ।

    परमणिरुंजणु जाम वि णिम्मलु होइ मणेइ॥

    अण्णु णिरंजणु देउ पर अप्पा दंसणणाणु।

    अप्पा सच्चड मोक्खपहु एहउ मूढ वियाणु॥

    ताम कुतित्थइ परिभमइं धुत्तिम ताम करंति।

    गुरुहुं पसाएं जाम वि देहहं देउ मुणंति॥

    हे मूढ़! जगतिलक आत्मा को छोड़कर तू अन्य किसी का ध्यान मत कर! जिसने मरकत मणि को जान लिया, वह क्या काँच को कुछ गिनता है?

    हे वत्स! शुभ परिणाम से धर्म होता है, और अशुभ परिणाम से अधर्म होता है, इन दोनों से तो जन्म होता है किंतु इन दोनों से विवर्जित जीव पुन: जन्म धारण नहीं करता, मुक्ति प्राप्त करता है।

    हे योगी! कर्म तो स्वयं मिलते हैं और स्वयं बिछुड़ते हैं। क्षणभर ऐसा सोच कि क्या चंचल स्वभाव के पथिकों से कहीं गाँव बसते हैं?

    हे जीव! यदि तू दु:ख से भयभीत है तो अन्य को जीव मत मान तथा अन्य का चिंतन मत कर। क्योंकि तिल के तुषमात्र भी शल्य दुःख जरूर देती है।

    जैसे सूर्य घोर अंधकार को एक निमेषमात्र में नष्ट कर देता है, उसी प्रकार आत्मा की भावना करने से पाप एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं।

    हे योगी! जिसके हृदय में जन्म-मरण से रहित एक परमदेव निवास करता है, वह सिद्ध पद को प्राप्त करता है।

    जो जीव पुराने कर्मों को खपाता है और नए कर्मों का प्रवेश नहीं होने देता तथा जो परम निरंजन तत्व को नमस्कार करता है, वह स्वयं परमात्मा बन जाता है।

    आत्मा जब तक निर्मल होकर परम निर्जन स्वरूप को नहीं जानती, तब तक ही वह पाप रूप परिणमता है और तभी तक कर्मों को बाँधती है।

    आत्मा ही उत्कृष्ट निरंजनदेव है, आत्मा ही दर्शन-ज्ञान है, आत्मा ही सच्ची मोक्षपथ है—ऐसा हे मूढ! तू जान!

    लोग तीर्थ में तभी तक परिभ्रमण करते हैं और तभी तक धूर्तता करते हैं, जब तक वे गुण के प्रसाद से देह में ही रहे हुए देव को नहीं जान लेते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 22)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

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