पाहुड़ दोहा-5

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मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-5

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    वंदहु वंदहु जिणु भणइ को वंदउ हलि इत्थु।

    णियदेहाहं वसंतयहं जइ जाणिउ परमत्थु॥

    उपलाणहिं जोइय करहुलउ।

    दावणु छोडहि जिम चरइ।

    जसु अखइणि रामइं गयउ मणु।

    सो किम बुहु जगि रइ करइ॥

    ढिल्लउ होहि इंदियहं पंचहं विण्णि णिवारि।

    एक्क णिवारहि जीहडिय अण्ण पराइय पारि॥

    पंच बलद्द रक्खियइं।

    णंदणवणु गओ सि।

    अप्पु जाणिउ वि परु।

    वि एमइ पव्वइओ सि॥

    पंचहिं बाहिरु णेहडउ हलि सहि लग्गु पियरस।

    तासु दीसइ आगमणु जो खलु मिलिउ पररस॥

    मणु जाणइ उवएसडउ जहिं सोवेइ अचिंतु।

    अचितहो चित्तु जो मेलवइ सो पुणु होइ णिचितु॥

    वट्टडिया अणुलग्गयहं अग्गउ जोयंताहं।

    कंटउ भग्गइ पाउ जइ भज्जउ दोसु ताहं॥

    मिल्लहु मिल्लहु मोक्कलउ

    जहिं भावइ तहिं जाउ।

    सिद्धिमहापुरि पइसरउ

    मा करि हरिसु विसाउ॥

    मणु मिलियद्द परमेसरहो परमेसरु जि मणरस।

    बिण्णि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चडावउँ करस॥

    आराहिज्जइ देउं परमेसरु कहिं गयउ।

    वीसारिज्जइ काइं तासु जो सिउ सव्वंगउ॥

    कोई कहता है कि हे जीवों। तुम जिनवर की वंदना करो! परंतु यदि अपनी देह में ही स्थित परमार्थ को जान लिया, तो फिर भला अन्य किसकी वंदना करना शेष रहा?

    जिस प्रकार हाथी का बच्चा अथवा ऊँट कमल को देखकर अपना बंधन तोड़कर विचरण करने लगते हैं, उसी प्रकार जिसका मन अक्षयिनी-रामा मुक्तिमणी में लगा हुआ है—ऐसा बुधजन ससार-बंधन में रति कैसे करे?

    हे जीव। पाँच इंद्रियों के संबंध में तू ढीला मत हो। इनमें भी दो का निवारण कर, एक तो जीभ को रोक और दूसरी पराई नारी को छोड़।

    रे जीव! तूने तो पाँच बैल रखे, और कभी तू नंदनवन मे गया, यों ही परिव्राजक कैसे बन गया? वैसे तुमने तो आत्मा को जाना, परमात्मा को जाना—ऐसे ही परिव्राजक बन बैठा!

    हे सखी। पिया को तो बाहर से पाँच का स्नेह लगा है। जो दुष्ट अन्य के साथ मिला हुआ है, उसको स्वघर में आनंद नहीं दीखता।

    मन चिंतारहित-निश्चिंत होकर जब सो जाता है तभी वह उपदेश को समझ सकता है और अचित वस्तु से अपने चित को जो अलग करता है, वही निश्चिंत होता है।

    जो आगे देखता हुआ मार्ग में चल रहा है, उसके पैर में कदाचित् काँटा लग जाए तो लग जाए, इसमें उसका दोष नहीं है। अर्थात् साधक को पूर्वकृत कोई अशुभ उदय हो जाए तो इसमें वर्तमान आराधना का तो कोई दोष नहीं है।

    उसे स्वतंत्र छोड़ दो, मुक्त कर दो। स्वाधीनता से उसे जहाँ जाना हो वहीं जाने दो, सिद्धि-महापुरी की ओर उसे आगे बढ़ने दो। कुछ हर्ष-विषाद करो।

    मन तो परमेश्वर में मिल गया और परमेश्वर मन से मिल गया, दोनों एक रस-समरस हो रहे हैं, तब मैं पूजन सामग्री किसको चढाऊँ?

    रे जीव! तू देव की आराधना करता है, परंतु तेरा परमेश्वर कहीं चला गया? जो शिव-कल्याणरूप परमेश्वर सर्वांग में विराज रहा है, उसको तू कैसे भूल गया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 18)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

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