उद्धव-शतक

uddhaw shatak

जगन्नाथदास रत्नाकर

और अधिकजगन्नाथदास रत्नाकर

     

    मंगलाचरण

    जासौं जाति बिषय-बिषाद की बिवाई बेगि,
    चोप-चिकनाई चित चारु गहिबौ करै।
    कहै रतनाकर कबित्त-बर-व्यंजन में,
    जासौं स्वाद सौगुनौ रुचिर रहिबौ करै॥
    जासौं जोति जागति अनूप मन-मंदर में,
    जड़ता-विषम-तम-तोम दहिबौ करै।
    जयति जसोमति के लाड़िले गुपाल, जन
    रावरी कृपा सौं सो सनेह लहिबौ करै॥

    [उद्धव का मथुरा से ब्रज जाना]

    न्हात जमुना में जलजात एक देख्यौ जात,
    जाकौ अध-ऊरध अधिक मुरझायौ है।
    कहै रतनाकर उमहि गहि स्याम ताहि,
    बास-बासना सौं नैंकु नासिका लगायौ है॥
    त्यौंहीं कछु घूमि झूमि बेसुध भए कै हाय,
    पाय परे उखरि अभाय मुख छायौ है।
    पाए घरी द्वैक में जगाइ ल्याइ ऊधौ तीर,
    राधा-नाम कीर जब औचक सुनायौ है॥

    आए भुज-बंध दिए ऊधव-सखा कैं कंध,
    डग-मग पाय मग धरत धराए हैं।
    कहै रतनाकर न बूझैं कछू बोलत औ,
    खोलत न नैन हूँ अचैन चित छाए हैं॥
    पाइ बहे कंज में सुगंध राधिका कौ मंजु,
    ध्याए कदली-बन मतंग लौं मताए हैं।
    कान्ह गए जमुना नहान पै नए सिर सौं,
    नीकें तहाँ नेह की नदी में न्हाइ आए हैं॥

    देखि दूरि ही तैं दौरि पौरि लगि भेंटि ल्याइ,
    आसन दै साँसनि समेटि सकुचानि तैं।
    कहै रतनाकर यौं गुनन गुबिंद लागे,
    जौ लौं कछू भूले से भ्रमे से अकुलानि तैं॥
    कहा कहैं ऊधो सौं कहैं हूँ तौ कहाँ लौं कहें,
    कैसे कहें कहें पुनि कौन सी उठानि तैं।
    तौलौं अधिकाई तैं उमगि कंठ आइ भिचि,
    नीर ह्वै बहन लागी बात अँखियानि तैं॥

    बिरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा,
    कहत बनै न जो प्रवीन सुकबीनि सौं।
    कहै रतनाकर बुझावन लगे ज्यौं कान्ह,
    ऊधौ कौं कहन-हेत ब्रज-जुवतीनि सौं॥
    गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौं,
    प्रेम पर्यो चपल चुंचाइ पुतरीनि सौं।
    नैंकु कहीं बैननि, अनेक कही नैननि सौं,
    रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं॥

    नंद औ जसोमति के प्रेम-पगे पालन की,
    लाड़-भरे लालन की लालच लगावती।
    कहै रतनाकर सुधाकर-प्रभा सौं मढ़ी,
    मंजु मृगनैनिनि के गुन-गन गावती॥
    जमुना कछारनि की रंग-रस-रारनि की,
    बिपिन-बिहारनि की हौंस हुमसावती।
    सुधि ब्रज-बासिनि दिवैया सुख-रासिनि की,
    ऊधौ नित हमकौं बुलावन कौं आवती॥

    चलत न चार्यौ भाँति कोटिनि बिचार्यौ तऊ,
    दाबि दाबि हार्यौ पै न टार्यौ टसकत है।
    परम गहीली बसुदेव-देवकी की मिली,
    चाह-चिमटी हूँ सौं न खैंचौं खसकत है॥
    कढ़त न क्यौं हूँ हाय बिध के उपाय सबै,
    धीर-आक-छीर हूँ न धारैं धसकत है।
    ऊधौ ब्रज-बास के बिलासनि कौ ध्यान धँस्यौ,
    निसि-दिन काँटे लौं करेजैं कसकत है॥

    रूप-रस पीवत अघात ना हुते जो तब,
    सोई अब आँस है उबरि गिरिबौ करैं।
    कहै रतनाकर जुड़ात हुते देखैं जिन्हैं,
    याद किएँ तिनकौं अवाँ सौं घिरिवौ करैं॥
    दिननि के फेर सौं भयौ है हेर-फेर ऐसौ,
    जाकौं हेरि फेरि हेरि बोई हिरिबौ करैं।
    फिरत हुते जू जिन कुंजनि में आठौं जाम,
    नैननि मैं अब सोई कुंज फिरिबौ करैं॥

    गोकुल की गैल-गैल गैल-गैल ग्वालिन की,
    गोरस कैं काज-लाज-बस कै बहाइबौ।
    कहै रतनाकर रिझाइबौ नवेलिनि कौं,
    गाइबो गवाइबौ औ नाचिबौ नचाइबौ॥
    कीबौ स्रमहार मनुहार कै बिबिध बिधि,
    मोहिनी मृदुल मंजु बाँसुरी बजाइबौ।
    ऊधौ सुख-संपति-समाज ब्रज-मंडल के,
    भूलैं हूँ न भूलै भूलैं हमकौं भुलाइबौ॥

    मोर के पखौवनि कौ मुकुट छबीली छोरि,
    क्रीट मनि-मंडित धराइ करिहैं कहा।
    कहै रतनाकर त्यौं माखन-सनेही बिनु,
    षट-रस व्यंजन चबाइ करिहैं कहा॥
    गोपी ग्वाल-बालनि कौं झोंकि बिरहानल में,
    हरि सुरबृंद की बलाइ करिहैं कहा।
    प्यारौ नाम गोविंद गुपाल कौ बिहाय हाय,
    ठाकुर त्रिलोक के कहाइ करिहैं कहा॥

    कहत गुपाल माल मंजु मनि-पुंजनि की,
    गुंजनि की माल की मिसाल छवि छावै ना।
    कहै रतनाकर रतन-में किरीट अच्छ,
    मोर-पच्छ-अच्छ-लच्छ अंसहू सु-भावै ना॥
    जसुमति मैया की मलैया अरु माखन कौ,
    काम-धेनु-गोरस हूँ गूढ़ गुन पावै ना।
    गोकुल की रज के कनूका औ तिनूका सम,
    संपति त्रिलोक की बिलोकन में आवै ना॥

    राधा-मुख-मंजुल-सुधाकर के ध्यान ही सौं,
    ‘प्रेम-रतनाकर’ हियैं यौं उमगत है।
    त्यौंहीं बिरहातप प्रचंड सौं उमंडि अति,
    ऊरध उसास कौ झकोर यौं जगत है॥
    केवट बिचार कौ बिचारौ पचि हारि जात, 
    होत गुन-पाल ततकाल नभ-गत है।
    करत गंभीर धीर-लंगर न काज कछू,
    मन कौ जहाज़ डगि डूबन लगत है॥

    सील-सनी सुरुचि सु-बात चलैं पूरब की,
    औरै ओप उमगी दृगनि मिदुराने तैं।
    कहै रतनाकर अचानक चमक उठी,
    उर घनस्याम कैं अधीर अकुलाने तैं॥
    आसाछन्न दुरदिन दीस्यौ सुरपुर माहिं,
    ब्रज में सुदिन बारि-बृंद हरियाने तैं।
    नीर कौ प्रवाह कान्ह-नैननि कैं तीर बह्यौ,
    धीर बह्यौ ऊधौ-उर-अचल रसाने तैं॥

    प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत,
    ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान सरके।
    कहै रतनाकर धरा कौ धीर धूरि भयौ,
    भूरि-भीति-भारनि फनिंद-फन करके॥
    सुर सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव-सने,
    संसय समाए धाए धाम बिधि हर के।
    आई फिरि ओप ठाम-ठाम ब्रज-गामनि के,
    बिरहिनि बामनि के बाम अंग फरके॥

    हेत-खेत माहिं खोदि खाईं सुद्ध स्वारथ की,
    प्रेम-तृन गोपि राख्यौ तापै गमनौ नहीं।
    करिनी प्रतीति-काज करनी बनावट की,
    राखी ताहि हेरि हियैं हौंसनि सनौ नहीं॥
    घात में लगे हैं ये बिसासी ब्रजबासी सबै,
    इनके अनोखे छल छंदनि छनौ नहीं।
    बारनि कितेक तुम्हैं बारन कितेक करैं,
    बारन-उबारन ह्वै बारन बनौ नहीं॥

    पाँचौ तत्व माहिं एक सत्व ही की सत्ता सत्य,
    याही तत्व-ज्ञान कौ महत्व स्रुति गायौ है।
    तुम तौ बिबेक रतनाकर कहौ क्यौं पुनि,
    भेद पंचभौतिक के रूप में रचायौ है॥
    गोपिन में, आप में बियोग औ संजोग हू में,
    एकै भाव चाहिए सचोप ठहरायौ है।
    आपु ही सौं आपुकौ मिलाप औ बिछोह कहा,
    मोह यह मिथ्या सुख-दुःख सब ठायौ है॥

    दिपत दिवाकर कौं दीपक दिखावै कहा,
    तुम सन ज्ञान कहा जानि कहिबौ करैं।
    कहै रतनाकर पै लौकिक-लगाव मानि,
    मरम अलौकिक की थाह थहिबौ करैं॥
    असत असार या पसार में हमारी जान,
    जन भरमाए सदा ऐसैं रहिबौं करैं।
    जागत औ पागत अनेक परपंचनि में,
    जैसैं सपने में अपने कौं लहिबौ करैं॥

    हा! हा! इन्हैं रोकन कौं टोक न लगावो तुम,
    बिसद-बिबेक-ज्ञान-गौरव-दुलारे ह्वै।
    प्रेम-रतनाकर कहत इमि ऊधव सौं,
    थहरि करेजौ थामि परम दुखारे ह्वै॥
    सीतल करत नैकुँ ही-तल हमारौ परि,
    बिषम-बियोग-ताप-समन पुचारे ह्वै।
    गोपिनि के नैन-नीर ध्यान-नलिका ह्वै धाइ,
    दृगनि हमारैं आइ छूटत फुहारे ह्वै॥

    प्रेम-नेम निफल निवारि उर अंतर तैं,
    ब्रह्म-ज्ञान आनंद-निधान भरि लैहैं हम।
    कहै रतनाकर सुधाकर-मुखीनि-ध्यान,
    आँसुनि सौं धोइ जोति जोइ जरि लैहैं हम॥
    आवौ एक बार धारि गोकुल-गली की धूरि,
    तब इहिं नीति की प्रतीति धरि लैहैं हम।
    मन सौं, करेजे सौं, स्रवन-सिर-आँखिनि सौं,
    ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैहैं हम॥

    बात चलैं जिनकी उड़ात धीर धूरि भयौ,
    ऊधौ मंत्र फूँकिन चले हैं तिन्हैं ज्ञानी ह्वै।
    कहै रतनाकर गुपाल के हिये में उठी,
    हूक मूक भायनि की अकह कहानी ह्वै॥
    गहबर कंठ ह्वै न कढ़न सँदेस पायौ,
    नैन-मग तौलौं आनि बैन अगवानी ह्वै।
    प्राकृत प्रभाव सौं पलट मनमानी पाइ,
    पानी आज सकल सँवार्यौ काज बानी ह्वै॥

    ऊधव कैं चलत गुपाल उर माहिं चल,
    आतुरी मची सो परै कहि न कबीनि सौं।
    कहै रतनाकर हियौ हूँ चलिबै कौ संग,
    लाख अभिलाष लै उमहि बिकलीनि सौं॥
    आनि हिचकी ह्वै गरैं बीच सकस्यौई परै,
    स्वेद ह्वै रस्यौई परै रोम-झंझरीनि सौं।
    आनन-दुवार तैं उसाँस ह्वै बढ्यौई परै,
    आँस ह्वै कढ्यौई परै नैन-खिरकीनि सौं॥

    [उद्धव की ब्रज यात्रा]

    आई ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौं चढ़ाइ कान्ह,
    अकथ कथानि की व्यथा सौं अकुलात हैं।
    कहै रतनाकर बुझाइ कछु रोकैं पाय,
    पुनि कछु ध्याइ उर धाइ उरझात हैं॥
    उससि उसाँसनि सौं बहि-बहि आँसनि सौं,
    भूरि भरे हिय के हुलास न उरात हैं।
    सीरे तपे बिबिध सँदेसनि की बातनि की,
    घातनि की झौंक में लगेई चले जात हैं॥

    लै कै उपदेस औ संदेस-पन ऊधौ चले,
    सुजस-कमाइबैं उछाह-उदगार में।
    कहै रतनाकर निहारि कान्ह कातर पै,
    आतुर भए यौं रह्यौ मन न सँभार में॥
    ज्ञान-गठरी की गाँठि छरकि न जान्यौ कब,
    हरैं हरैं पूँजी सब सरकि कछार में।
    डार में तमालनि की कछु बिरमानी अरु,
    कछु अरुझानी है करीरनि के झार में॥

    हरैं हरैं ज्ञान के गुमान घटि जान लगे,
    जोग के बिधान ध्यान हूँ तैं टरिबै लगे।
    नैननि में नीर रोम सकल सरीर छायौ,
    प्रेम-अद्भुत-सुख सूझि परिबै लगे॥
    गोकुल के गाँव की गली में पग पारत हीं,
    भूमि कैं प्रभाव भाव औरै भरिबै लगे।
    ज्ञान-मारतंड के सुखाए मनु मानस कौं,
    सरस सुहाय घनस्याम करिबै लगे॥

    [उद्धव का ब्रज में पहुँचना]

    दुःख-सुख ग्रीषम औ सिसिर न ब्यापै जिन्हैं,
    छापै छाप एकै हिये ब्रह्म-ज्ञान-साने में।
    कहै रतनाकर गंभीर सोई ऊधव कौ,
    धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने में॥
    औरै मुख-रंग भयौ सिथिलित अंग भयौ,
    बैन दबि दंग भयौ गर गरुवाने में।
    पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने काँपि,
    जानैं कौन बहति बयारि बरसाने में॥

    धाईं धाम-धाम तैं अवाई सुनि ऊधव की,
    बाम-बाम लाख अभिलाषनि सौं भ्वै रहीं।
    कहै रतनाकर पै बिकल बिलोकि तिन्हैं,
    सकल करेजौ थामि आपुनपौ ख्वै रहीं॥
    लेखि निज-भाग-लेख रेख तिन आनन की,
    जानन की ताहि आतुरी सौं मन म्वै रहीं।
    आँस रोकि साँस रोकि पूछन-हुलास रोकि,
    मूरति निरास की सी आस-भरी ज्वै रहीं॥

    भेजे मनभावन के ऊधव के आवन की,
    सुधि ब्रज-गाँवनि में पावन जबै लगीं।
    कहै रतनाकर गुवालिनि की झौरि-झौरि,
    दौरि-दौरि नंद-पौरि आवन तबै लगीं॥
    उझकि-उझकि पदकंजनि के पंजनि पै,
    पेखि-पेखि पाती छाती छोहनि छबै लगीं।
    हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा,
    हमकौं लिख्यौ है कहा कहन सबै लगीं॥

    देखि-देखि आतुरी बिकल ब्रज-बारिनि की,
    ऊधव की चातुरी सकल बहि जाती हैं।
    कहै रतनाकर कुसल कहि पूछि रहे,
    अपर सनेस की न बातैं कहि जाति हैं।
    मौन रसना ह्वै जोग जदपि जनायौ सबै,
    तदपि निरास-बासना न गहि जाति हैं।
    साहस कै कछुक उमाहि पूछिबै कौं ठाहि,
    चाहि उत गोपिका कराहि रहि जाति हैं॥

    दीन दसा देखइ ब्रज-बालिनि की ऊधव कौ,
    गरि गौ गुमान ज्ञान गौरव गुठाने से।
    कहै रतनाकर न आए मुख बैन नैन,
    नीर भरि ल्याए भए सकुचि सिहाने से॥
    सूखे से स्रमे से सक बके से सके से थके,
    भूले से, भ्रमे से भभरे से भकुवाने से।
    हौले से हले से हूल-हूले से हिये में हाय!
    हारे से हरे से रहे हेरत हिराने से॥

    मोह-तम-रासि नासिबे कौं स-हुलास चले,
    ब्रह्म कौ प्रकास पारि मति रति-माती पर।
    कहै रतनाकर पै सुधि उधिरानी सबै,
    धूरि परी धीर जोग-जुगति-सँघाती पर॥
    चलत विषम ताती बात ब्रज-बारिनि की,
    बिपति महान परी ज्ञान-बरी बाती पर।
    लच्छ दुरे सकल बिलोकत अलच्छ रहे,
    एक हात पाती एक हाथ दिए छाती पर॥

    [उद्धव के ब्रजवासियों से वचन]

    चाहत जौ स्वबस सँजोग स्याम-सुंदर कौ,
    जोग के प्रयोग में हियौ तो बिलस्यौ रहै।
    कहै रतनाकर सु-अंतर-मुखी ह्वै ध्यान,
    मंजु हिय-कंज-जगी जोति में धस्यौ रहै॥
    ऐसैं करौ लीन आतमा कौं परमातमा में,
    जामैं जड़-चेतन-बिलास बिकस्यौ रहै।
    मोह-बस जोहत बिछोह जिय जाकौ छोहि,
    सो तौ सब-अंतर निरंतर बस्यौ रहै॥

    पंच तत्व में जो सच्चिदानंद की सत्ता सो तौ,
    हम तुम उनमैं समान ही समोई है।
    कहै रतनाकर बिभूति पंच-भूत हू की,
    एक ही सी सकल प्रभूतनि मैं पोई है॥
    माया के प्रपंच ही सौं भासत प्रभेद सबै,
    काँच-फलकनि ज्यौं अनेक एक सोई है।
    देखौ भ्रम-पटल उघारि ज्ञान-आँखिनि सौं,
    कान्ह सब ही में कान्ह ही में सब कोई है॥

    सोई कान्ह सोई तुम सोई सबही हैं लखौ,
    घट-घट अंतर अनंत स्यामघन कौं।
    कहै रतनाकर न भेद-भावना सौं भरौ,
    बारिधि औ बूँद के बिचारि बिछुरन कौं॥
    अबिचल चाहत मिलाप तौ बिलाप त्यागि,
    जोग-जुगती करि जुगावौ ज्ञान-धन कौं।
    जीव आतमा कौं परमातमा में लीन करौ,
    छीन करौ तन कौं न दीन करौ मन कौं॥

    सुनि-सुनि ऊधव की अकह कहानी कान,
    कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं।
    कहै रतनाकर रिसानी, बररानी कोऊ,
    कोऊ बिलखानी, बिकलानी, बिथकानी हैं॥
    कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी रहीं,
    कोऊ घूमि-घूमि परीं भूमि मुरझानी हैं।
    कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी कोऊ,
    कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी हैं॥

    [उद्धव के प्रति गोपियों के वचन]

    रस के प्रयोगनि के सुखद सु जोगनि के,
    जेते उपचार चारु मंजु सुखदाई हैं।
    तिनके चलावन की चरचा चलावै कौन,
    देत ना सुदर्सन हूँ यौं सुधि सिराई हैं॥
    करत उपाय ना सुभाय लखि नारिनि कौ,
    भाय क्यौं अनारिनि कौ भरत कन्हाई हैं।
    ह्याँ तौ विषमज्वर-बियोग की चढ़ाई यह,
    पाती कौन रोग की पठावत दवाई हैं॥

    ऊधौ कहै सूधौ सौ सनेस पहिलैं तो यह,
    प्यारे परदेस तैं कबैं धौं पग पारिहैं।
    कहै रतनाकर तिहारी परि बातनि में,
    मीड़ि हम कब लौं करेजौ मन मारिहैं॥
    लाइ-लाइ पाती छाती कब लौं सिरैहैं हाय,
    धरि-धरि ध्यान धीर कब लगि धारिहैं।
    बैननि उचारिहैं उराहनौ कबै धौं सबै,
    स्याम कौ सलोनौ रूप नैननि निहारिहैं॥

    षटरस-व्यंजन तौ रंजन सदा ही करैं,
    ऊधौ नवनीत हूँ स-प्रीत कहूँ पावैं हैं।
    कहै रतनाकर बिरद तौ बखानैं सबै,
    साँची कहौ केते कहि लालन लड़ावै हैं॥
    रतन-सिंहासन बिराजि पाकसासन लौं,
    जग-चहुँ-पासनि तौ सासन चलावैं हैं।
    जाइ जमुना-तट पै कोऊ बट-छाहिं माहिं,
    पाँसुरी उमाहि कबौं बाँसुरी बजावैं हैं॥

    कान्ह-दूत कैधौं ब्रह्म-दूत है पधारे आप,
    धारे प्रन फेरत कौ मति ब्रजवारी की।
    कहै रतनाकर पै प्रीति-रीति जानत ना, 
    ठानन अनीति आनि नीति लै अनारी की॥
    मान्यौ हम, कान्ह ब्रह्म एकही, कह्यौ जो तुम,
    तौहूँ हमैं भावति न भावना अन्यारी की।
    जैहै बनि-बिगरि न बारिधिता बारिधि की,
    बूँदता बिलैहै बूँद बिबस बिचारी की॥

    चोप करि चंदन चढ़ायौ जिन अंगनि पै,
    तिनपै बजाइ तूरि धूरि दरिबौ कहौ।
    रस-रतनाकर सनेह निरवार्यौ जाहि,
    ता कच कौं हाय जटा-जूट बरिबौ कहौ॥
    चंद अरविंद लौं सराह्यौ ब्रजचंद जाहि,
    ता मुख कौं-काकचंचवत करिबौ कहौ।
    छेदि-छेदि छाती छलनी कै बैन-बाननि सौं,
    तामैं पुनि ताइ धीर-नीर धरिबौ कहौ॥

    चिंता-मनि मंजुल पँवारि धूरि-धारनि में,
    काँच-मन-मुकुर सुधारि रखिबौ कहौ।
    कहै रतनाकर बियोग-आगि सारन कौं,
    ऊधौ हाय हमकौं बयारि भखिबौ कहौ॥
    रूप-रस-हीन जाहि निपट निरूपि चुके,
    ताकौ रूप ध्याइबौ औ रस चखिबौ कहौ।
    एते, बड़े बिस्व माहिं हैरैं हूँ न पैयै जाहि,
    ताहि त्रिकुटी में नैन मूँदि लखिबौ कहौ॥

    आए हौ सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तौपै,
    ऊधौ ये बियोग के बचन बतरावौ ना।
    कहै रतनाकर दया करि दरस दीन्यौ,
    दुख दरिबै कौं, तौपै अधिक बढ़ावौ ना॥
    टूक-टूक ह्वै है मन-मुकुर हमारौ हाय,
    चूकि हूँ कठोर-बैन-पाहन चलावो ना।
    एक मनमोहन तौ बसिकै उजार्यो मोहिं,
    हिय में अनेक मनमोहन बसावौ ना॥

    चुप रहौ ऊधौ सूधौ पथ मथुरा कौ गहौ,
    कहौ ना कहानी जौ बिबिध कहि आए हो।
    कहै रतनाकर न बूझिहैं बुझाएँ हम,
    करत उपाय बृथा भारी भरमाए हौ॥
    सरल स्वभाव मृदु जानि परौ ऊपर तैं,
    पर उर धाय करि लौन सौ लगाए हौ।
    रावरी सुधाई में भरी है कुटिलाई कूटि,
    बात की मिठाई में लुनाई लाइ ल्याए हौ॥

    नेम ब्रत संजम के पींजरैं परे को जब,
    लाज-कुल-कानि-प्रतिबंधहिं निवारि चुकीं।
    कौन गुन गौरव कौ लंगर लगावै जब,
    सुधि बुधि ही कौ भार टेक करि टारि चुकीं।
    जोग-रतनाकर में साँस घूँटि बूड़ै कौन,
    ऊधौ हम सूधौ यह बानक बिचारि चुकीं।
    मुक्ति मुकुता कौ मोल माल ही कहा है जब,
    मोहन लला पै मन-मानिक ही वारि चुकीं॥

    ल्याए लादि बादि हीं लगावन हमारे गरैं,
    हम सब जानी कहौ सुजस-कहानी ना।
    कहै रतनाकर गुनाकर गुविंद हूँ कैं,
    गुननि अनंत बेधि सिमिटि समानी ना॥
    हाय बिन मोल हूँ बिकी न मग हूँ में कहूँ,
    तापै बटमार-टोल लोल हूँ लुभानी ना।
    केती मिली मुकति बधू बर के कूबर में,
    ऊबर भई जो मधुपुर में समानी ना॥

    हम परतच्छ में प्रमान अनुमानैं नाहिं,
    तुम भ्रम-भौंर में भलैं हीं बहिबौ करौ।
    कहै रतनाकर गुबिंद-ध्यान धारैं हम,
    तुम मनमानौ रसा-सिंग गहिबौ करौ॥
    देखति सो मानति हैं सूधौ न्याव जानति हैं,
    ऊधौ! तुम देखि हूँ अदेख रहिबौ करौ।
    लखि ब्रज-भूप-रूप अलख अरूप ब्रह्म, 
    हम न कहैंगी तुम लाख कहिबौ करौ॥

    रंग-रूप-रहित लखात सबही हैं हमैं,
    वैसी एक और ध्याइ धीर धरिहैं कहा।
    कहै रतनाकर जरी हैं बिरहानल में,
    और अब जोति कौं जगाइ जरिहैं कहा॥
    राखौ धरि ऊधौ उतै अलख अरूप ब्रह्म,
    तासौ काज कठिन हमारे सरिहैं कहा।
    एक ही अनंग साधि साध सब पूरी अब,
    और अंग-रहित अराधि करिहैं कहा॥

    कर-बिनु कैसैं गाय दूहिहै हमारी वह,
    पद-बिनु कैसैं नाचि थिरकि रिझाइहै।
    कहै रतनाकर बदन-बिनु कैसैं चाखि,
    माखन, बजाइ बेनु गोधन गवाइहै॥
    देखि सुनि कैसैं दृग स्रवनि बिनाहीं हाय,
    मेरे ब्रजबासिनि की बिपति बराइहै।
    रावरौ अनूप कोऊ अलख अरूप ब्रह्म,
    ऊधौ कहौ कौन धौं हमारैं काम आइ है॥

    वे तो बस बसन रँगावैं मन रंगत ये,
    भसम रमावैं वे ये आपुहीं भसम हैं।
    साँस-साँस माहिं बहु बासर बितावत वे,
    इनकैं प्रतेक साँस जात ज्यौं जनम हैं॥
    ह्वै कै जग-भुक्ति सौं बिरक्त मुक्त चाहत वे,
    जानत ये भुक्ति मुक्ति दोऊ विष-सम हैं।
    करिकै बिचार ऊधौ सूधौ मन माहिं लखौ,
    जोगी सौं बियोग-भोग-भोगी कहा कम हैं॥

    जोग को रमावै औ समाधि को जगावै इहाँ,
    दुख-सुख-साधनि सौं निपट निबेरी हैं।
    कहै रतनाकर न जानैं क्यौं इतै धौं आइ,
    साँसनि की सासना की बासना बखेरी हैं॥
    हम जमराज की धरावतिं जमा न कछू,
    सुर-पति-संपति को चाहतिं न ढेरी हैं।
    चेरी हैं न ऊधौ! काहू ब्रह्म के बाबा की हम,
    सूधौ कहे देतिं एक कान्ह की कमेरी है॥

    सरग न चाहैं अपबरग न चाहैं सुनौ,
    भुक्ति-मुक्ति दोऊ सों बिरक्ति उर आनैं हम।
    कहै रतनाकर तिहारे जोग-रोग माहिं,
    तन मन साँसनि की साँसति प्रमानैं हम॥
    एक ब्रजचंद कृपा-मंद-मुसकानि हीं में,
    लोक परलौक कौ अनंद जिय जानैं हम।
    जाके या बियोग-दुख हू में सुख ऐसौ कछू,
    जाहि पाइ ब्रह्म-सुख हू में दुख मानैं हम॥

    जग सपनौ सौ सब परत दिखाई तुम्हैं,
    तातैं तुम उधौ हमैं सोवत लखात हौ।
    कहै रतनाकर सुनै को बात सोवत की,
    जोई मुँह आवत सोई बिबस बयात हौ।
    सोवत में जागत लखत अपने कौं जिमि,
    त्यौंही तुम आपहीं सुज्ञानी समुझात हौ।
    जोग-जोग कबहूँ न जानैं कहा जोहि जकौ,
    ब्रह्म-ब्रह्म कबहूँ बहकि बररात हौ॥

    ऊधौ यह ज्ञान की बखान सब बाद हमैं,
    सूधौ बाद छाँड़ि बकबादहिं बढ़ावै कौन।
    कहै रतनाकर बिलाइ ब्रह्म-काय माहिं,
    आपने सौं आपुनपौ आपुनौ नसावै कौन॥
    काहू तौ जनम में मिलैंगी स्यामसुंदर कौं,
    याहू आस प्रानायाम-साँस में उड़ावै कौन।
    परि कै तिहारी ज्योति-ज्वाल की जगाजग में,
    फेरि जग जाइबे की जुगति जरावै कौन॥

    वाही मुख मंजुल की चहतिं मरीचैं सदा,
    हमकौं तिहारी ब्रह्म-ज्योति करिबौ कहा।
    कहै रतनाकर सुधाकर-उपासिनि कौ,
    भानु की प्रभानि कैं जुहारि जरिबौ कहा॥
    भोगि रहीं बिरंचि बिरंचि के सँजोग सबै,
    ताके सोग सारन कौं जोग चरिबौ कहा।
    जब ब्रजचंद कौ चकोर चित चारु भयौ,
    बिरह-चिंगारिनि सौं फेरि डरिबौ कहा॥ 

    ऊधौ जम-जातना की बात ना चलावौ नैंकु,
    अब दुःख-सुख कौ बिबेक करिबौ कहा।
    प्रेम-रतनाकर-गँभीर-परे मीननि कौ,
    इहिं भव-गोपद की भीति भरिबौ कहा॥
    एकै बार लैहैं मरि मीच की कृपा सौं हम,
    रोकि-रोकि साँस बिनु मीच मरिबौ कहा।
    छिन जिन झेली कान्ह-बिरह-बलाय तिन्हैं,
    नरक-निकाय की धरक धरिबौ कहा॥

    जोगिनि की भोगिनि की बिकल बियोगिनि की,
    जग में न जागती जमातैं रहि जाइँगी।
    कहै रतनाकर न सुख के रहै जौ दिन,
    तौ ये दुख-द्वंद की न रातैं रहि जाइँगी॥
    प्रेम-नेम छाँड़ि ज्ञान-छेम जो बतावत सो,
    भीति ही नहीं तौ कहा छातैं रहि जाइँगी।
    घातैं रहि जाइँगी न कान्ह की कृपा तैं इती,
    ऊधौ कहिबे कौं बस बातैं रहि जाइँगी॥

    कठिन करेजौ तो न करक्यौ बियोग होत,
    तापर तिहारो जंत्र मंत्र खँचिहै नहीं।
    कहै रतनाकर बरी हैं बिरहानल मैं,
    ब्रह्म की हमारैं जियति जोति जँचिहै नहीं।
    ऊधौ ज्ञान-भान की प्रभानि ब्रजचंद बिना,
    चहकि चकोर चित चोपि नचिहै नहीं।
    स्याम-रंग-राँचे हिय के हम ग्वारिनि कैं,
    जोग की भगौंहीं भेष-रेख रँचिहै नहीं॥

    नैननि के नीर औ उसीर पुलकावलि सौं,
    जाहि करि सीरौ बातहिं बिलासैं हम।
    कहै रतनाकर तपाई बरहातप की,
    आवन न देतिं जामैं बिषम उसासैं हम॥
    सोई मन-मंदिर तपावन के काज आज,
    रावरे कहे तैं ब्रह्म-जोति लै प्रकासैं हम।
    नंद के कुमार सुकुमार कौं बसाइ यामैं,
    ऊधौ अब आइ कै बिसास उदबासैं हम॥

    जोहैं अभिराम स्याम चित की चमक ही में,
    और कहा ब्रह्म की जगाइ जोति जोहैंगी।
    कहै रतनाकर तिहारी बात ही सौं रुकी,
    साँस की न साँसति कै औरौ अवरोहैंगी॥
    आपुही भई हैं मृगछाला ब्रज-बाला सूखि,
    तिनपै अपर मृगछाला कहा सोहैंगी।
    ऊधौ मुक्ति-माल बृथा मढ़त हमारे गरैं,
    कान्ह बिना तासौं कहौ काकौ मन मोहैंगी॥

    कीजै ज्ञान-भानु कौ प्रकास गिरि सृंगनि पै,
    ब्रज में तिहारी कला नैंकु खटिहैं नहीं।
    कहै रतनाकर न प्रेम-तरु पैहै सूखि,
    याकी डर-पात तृन-तूल घटि हैं नहीं॥
    रसना हमारी चारु चातकी बनी हैं ऊधौं,
    पी-पी को बिहाइ और रट रटि हैं नहीं।
    लौटि-पौटि बात कौ बवंडर बनावत क्यौं,
    हिय तैं हमारे घन-स्याम हटि हैं नहीं॥

    नैननि के आगैं नित नाचत गुपाल रहैं,
    ख़्याल रहैं सोई जो अनन्य-रसवारे हैं।
    कहै रतनाकर सो भावन भरीयै रहै,
    जाके चाव भाव रचैं उर में अखारे हैं॥
    ब्रह्म हूँ भए पै नारि ऐसियै बनी जो रहैं,
    तौ तौ सहै सीस सबै बैन जो तिहारे हैं।
    यह अभिमान तौ गवैहैं ना गए हूँ प्रान,
    हम उनकी हैं वह प्रीतम हमारे हैं॥

    सुनीं गुनीं समझीं तिहारी चतुराई जिती,
    कान्ह की पढ़ाई कविताई कुबरी की हैं।
    कहै रतनाकर त्रिकाल हूँ त्रिलोक हू में,
    आनैं आन नैंकु ना त्रिदेव की कही की हैं॥
    कहहिं प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिबाचा बाँधि,
    ऊधौ साँच मन की हिए की अरु जी की हैं।
    वै तो हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ,
    हम उनहीं की उनहीं की उनहीं की हैं॥

    नेम ब्रत संजम कै आसन अखंड लाइ,
    साँसनि कौं घूटिहैं जहाँ लौ गिलि जाइगौ।
    कहै रतनाकर धरैंगी मृगछाली अरु,
    धूरि हूँ दैरैंगी जऊ अंग छिलि जाइगौ॥
    पाँच-आँचि हूँ की झार झेलिहैं निहारि जाहि,
    रावरौ हू कठिन करेजौ हिलि जाइगौ।
    सहि हैं तिहारे कहैं साँसति सबैं पै बस,
    एती कहि देहु कै कन्हैया मिलि जाइगौ॥

    साधि लैहैं जोग के जटिल जे बिधान ऊधौ,
    बाँधि लैहैं लंकनि लपेटि मृगछाला हू।
    कहै रतनाकर सु मेल लैहैं छार अंग,
    झेलि लैहैं ललकि घनेरे घाम पाला हूँ॥
    तुम तौ कही औ अनकही कहि लीनी सबै,
    अब जौ कहौ तौ कहैं कछु ब्रज-बाला हू।
    ब्रह्म मिलिबै तैं कहा मिलिहै बतावौ हमैं,
    ताकौ फल जब लौं मिलै ना नंदलाला हू॥

    साधिहैं समाधि औ अराधिहैं सबै जो कहौ,
    आधि-ब्याधि सकल स-साध सहि लैहैं हम।
    कहै रतनाकर पै प्रेम-प्रन-पालन कौ,
    नेम यह निपट सछेम निरबैहैं हम॥
    जैहैं प्रान-पट लै सरूप मनमोहन कौ,
    तातैं ब्रह्म रावरे अनूप कौं मिलैंहैं हम।
    जौपै मिल्यौ तौ धाइ चाय सौं मिलैगी पर,
    जौ न मिल्यौ तौ पुनि इहाँ हीं लौटि ऐहैं हम॥

    कान्ह हूँ सौं आन ही बिधान करिबे कौं ब्रह्म,
    मधुपुरियानि की चपल कँखियाँ चहैं।
    कहै रतनाकर हँसैं कै कहौ रोवैं अब,
    गगन-अथाह-थाह लैंन मखियाँ चहैं॥
    अगुन-सगुन फंद बंध निरारन कौं,
    धारन कौं न्याय की नुकीली नखियाँ चहैं।
    मोर-पंखिया कौ मौर-वारौ चारु चाहन कौं,
    ऊधौं अँखियाँ चहैं न मोर-पँखियाँ चहैं॥

    ढोंग जात्यौ ढरकि परकि उर सोग जात्यौ, 
    जोग जात्यौ सरकि स-कंप कँखियानि तैं।
    कहै रतनाकर न लेखते प्रपंच ऐंठि,
    बैठि धरा लेखते कहूँधौं नखियानि तैं॥
    रहते अदेख नाहिं बेष वह देखत हूँ,
    देखत हमारी जान मोर पँखियानि तैं।
    ऊधौ ब्रह्म-ज्ञान कौ बखान करते ना नैंकु,
    देख लेते कान्ह जौ हमारी अँखियानि तैं॥

    चाव सौं चले हौ जोग-चरचा चलाइबै कौं,
    चपल चितौनि तैं चुचात चित-चाह है।
    कहै रतनाकर पै पार ना बसैहै कछू,
    हेरत हिरैहै भर्यौ जो उर उछाह है॥
    अंडे लौं टिटेहरी के जैहै जू बिबेक बहि,
    फेरि लहिबे की ताके तनक न राह है।
    यह वह सिंधु नाहिं सोखि जो अगस्त लियौ,
    ऊधौ यह गोपिनि के प्रेम कौ प्रवाह है॥

    थरि राखौ ज्ञान गुन गौरव गुमान गोइ,
    गोपिनि कौं आवत न भावत भड़ंग है।
    कहै रतनाकर करत टायँ-टायँ बृथा,
    सुनत न कोऊ इहाँ यह मुहचंग है॥
    और हूँ उपाय केतै सहज सुढंग ऊधौ,
    साँस रोकिबै कौं कहा जोग ही कुढंग है।
    कुटिल कटारी है अटारी है उतंग अति,
    जमुना तरंग है तिहारौ सतसंग है॥

    प्रथम भुराइ चाय-नाय पै चढ़ाइ नीकैं,
    न्यारी करी कान्ह कुल-कूल हितकारी तैं।
    प्रेम-रतनाकर की तरल तरंग पारि,
    पलटि पराने पुनि प्रन-पतवारी तैं॥
    और न प्रकार अब पार लहिबै कौ कछू,
    अटकि रही हैं एक आस गुनवारी तैं।
    सोऊ तुम आइ बात बिषम चलाइ हाय,
    काटन चहत जोग-कठिन कुठारी तैं॥

    प्रेम-पाल पलटि उलटि पतवारी-पति,
    केवट परान्यौ कूब-तूँबरी अधार लै।
    कहै रतनाकर पठायौ तुम्हैं तापै पुनि,
    लादन कौं जोग कौ अपार अति भार लै॥
    निरगुन ब्रह्म कहौ रावरौ बनैहै कहा,
    ऐहै कछु काम हूँ न लंगर लगार लै।
    विषम चलावौ ज्ञान-तपन-तपी न बात,
    पारी कान्ह तरनी हमारी मँझधार लै॥

    प्रथम भुराइ प्रेम-पाठनि पढ़ाइ उन,
    तन मन कीन्हें बिरहागि के तपेला हैं।
    कहै रतनाकर त्यौं आप अब तापै आइ,
    साँसनि की साँसति के झारत झमेला हैं॥
    ऐसे ऐसे सुभ उपदेस के दिवैयनि की,
    उधौ ब्रजदेस में अपेल रेल-रेला हैं।
    वे तो भए जोगी जाइ पाइ कूबरी कौ जोग,
    आप कहैं उनके गुरु हैं किधौं चेला है॥

    एते दूरि देसनि सौं सखनि-संदेसनि सौं,
    लखन चहैं जो दसा दुसह हमारी है।
    कहै रतनाकर पै बिषम बियोगद-बिथा,
    सबद-बिहीन भावना की भाववारी है॥
    आनैं उर अंतर प्रतीति यह तातैं हम,
    रीति नीति निपट भुजंगनि की न्यारी है।
    आँखिनि तैं एक सौ सुभाव सुनिबै कौ लियौ,
    काननि तैं एक देखिबै की टेक धारी है॥

    दौनाचल कौ ना यह छटक्यौ कनूका जाहि,
    छाइ छिगुनी पै छेम-छत्र छिति छायौ है।
    कहै रतनाकर न कूबर बधू-बर कौ,
    जाहि रंच राँचै पानि परिस गँवायौ है॥
    यह गरु प्रेमाचल दृढ़-ब्रत-धारिनि कौ,
    जाकैं भार भाव उनहूँ कौ सकुचायौ है।
    जानै कहा जानि कै अजान ह्वै सुजान कान्ह,
    ताहि तुम्हैं बात सौं उड़ावन पठायौ है॥

    सुधि बुधि जातिं उड़ी जिनकी उसाँसनि सौं,
    तिनकौं पठायौ कहा धीर धरि पाती पर।
    कहै रतनाकर त्यौं बिरह-बुलाय ढाइ,
    मुहर लगाइ गए सुख-थिर-थाती पर॥
    और जो कियौ सो कियौ ऊधौ पै न कोऊ बियौ,
    ऐसी घात घूनी करै जनम-सँघाती पर।
    कूबरी की पीठि तैं उतारि भार भारी तुम्हैं,
    भैज्यौ ताहि थापन हमारी छीन छाती पर॥

    सुघर सलोने स्यामसुंदर सुजान कान्ह,
    करुना-निधान के बसीठ बनि आए हौ।
    प्रेम-प्रनधारी गिरिधारी कौ सनेसौ नाहिं,
    होत है अँदेसौ झूठ बोलत बनाए हौ॥
    ज्ञान-गुन-गौरव-गुमान-भरे फूले फिरौ,
    बंचक के काज पै न रंचक बराए हौ।
    रसिक-सिरोमनि कौ नाम बदनाम करौ,
    मेरी जान ऊधौ कूर-कूबरी पठाए हौ॥

    कान्ह कूबरी के हिय-हुलसे-सरोजनि तैं,
    अमल अनंद-मकरंद जो ढरारै है।
    कहै रतनाकर, यौं गोपी उर संचि ताहि,
    तामैं पुनि आपनौ प्रपंच रंच पारै है॥
    आइ निरगुन-गुन गाइ ब्रज में जो अब,
    ताकौ उद्गार ब्रह्मज्ञान रस गारै है।
    मिलि सो तिहारौ मधु मधुप हमारैं नेह,
    देह में अछेह बिष बिषम बगारै है॥

    सीता असगुन कौं कटाई नाक एक बेरि,
    सोई करि कूब राधिका पै फेरि फाटी है।
    कहै रतनाकर परेखौ नाहिं याकौ नैंकु,
    ताकी तौ सदा की यह पाकी परिपाटी है॥
    सोच है यहै कै संग ताके रंगभौन माहिं,
    कौन धौं अनोखौ ढंग रचत निराटी है।
    छाँटि देत कूबर कै आँटि देत डाँट कोऊ,
    काटि देत खाट किधौं पाटि देत माटी है।

    आए कसराइ के पठाए वे प्रतच्छ तुम,
    लागत अलच्छ कुबजा के पच्छवारे हौ।
    कहै रतनाकर बियोग लाइ लाई उन,
    तुम जोग बात के बवंडर पसारे हौ॥
    कौऊ अएबलानि पै न ढरिक ढरारे होत,
    मधुपुरेवारे सब एकै ढार ढारे हौ।
    लै गए अक्रूर क्रूर तन तैं छुड़ाइ हाय,
    ऊधौ तुम मन तैं छुड़ावन पधारे हौ॥

    आए हौ पठाए वा छतीसे छलियै के इतै,
    बीस बिसै ऊधौ बीरबावन कलाँच है।
    कहै रतनाकर प्रपंच ना पसारौ गाढ़े,
    बाढ़े पै रहौगे साढ़े बाइस ही जाँच है॥
    प्रेम अरु जोग में है जोग छठैं-आटैं पर्यौ,
    एक है रहैं क्यौं दोऊ हीरा अरु काँच है।
    तीन गुन पाँच तत्व बहकि बतावत सो,
    जैहै तीन-तेरह तिहारी तीन-पाँच है॥

    कंस के कहे सौं जदुबंस कौ बताइ उन्हैं,
    तैसैं हीं प्रसंसि कुबजा पै ललचायौ जौ।
    कहै रतनाकर न मुष्टिक चनूर आदि,
    मल्लनि कौ ध्यान आनि हय कसकायौ जौ॥
    नंद जसुदा की सुख-मूरि करि धूरि सबै,
    गोपी ग्वाल गैयनि पै गाज लै गिरायौ जौ।
    होत कहूँ क्रूर तौ न जानैं करते धौं कहा,
    एतौ क्रूर करम अक्रूर है कमायौ जौ॥

    चाहत निकारन तिन्हैं जो उर-अंतर तैं,
    ताकौ जोग नाहिं जोग-मंतर तिहारे में।
    कहै रतनाकर बिलग करिबै में होति,
    नीति बिपरीत महा कहति पुकारे मैं॥
    तातैं तिन्हैं ल्याइ लाइ हिय तैं हमारे बेगि,
    सोचियै उपाय फेरि चित्त चेतवारे मैं।
    ज्यौं-ज्यौं बसे जात दूरि-दूरि प्रिय प्रान-मूरि,
    त्यौं-त्यौं धँसे जात मन-मुकुर हमारे मैं॥

    ह्याँ तौ ब्रजजीवन सौं जीवन हमारौ हाय,
    जानैं कौन जीव लै उहाँ के जन जन में।
    कहै रतनाकर बतावत कछू कौ कछू,
    ल्यावत न नैंकु हूँ बिबेक निज मन में॥
    अच्छिनि उघारि ऊधौ करहु प्रतच्छ लच्छ,
    इत पसु-पच्छिनि हूँ लाग हैं लगन में।
    काहू की न जीहा करै ब्रह्म की समीहा सुनौ,
    पीहा-पीहा रटत पपीहा मधुबन में॥

    बाढ्यौ ब्रज पै जो ऋन मधुपुर-बासिनि कौ,
    तासौं ना उपाय काहूँ भाय उमहन कौं।
    कहै रतनाकर बिचारत हुतीं हीं हम,
    कोऊ सुभ जुक्ति तासौं मुक्त है रहन कौं॥
    कीन्यौ उपकार दौरि दोउनि अपार ऊधौ,
    सोई भूरि भार सौं उबारता लहन कौं।
    लै गयो अक्रूर-क्रूर तब सुख-मूर कान्ह,
    आए तुम आज प्रान-ब्याज उगहन कौं॥

    पुरतीं न जो पै मोर-चंद्रका किरीट-काज,
    जुरतीं कहा न काँच किरचैं कुभाय की।
    कहै रतनाकर न भावते हमारे नैन,
    तो न कहा पावते कहूँधौं ठायँ पाय की॥
    मान्यौ हम मान कै न मानती मनाऐं बेगि,
    कीरति-कुमारी सुकुमारी चित-चाय की।
    याही सोच माहिं हम होतिं दूबरी कै कहा,
    कूबरी हू होती ना पतोहू नंदराय की॥

    हरि-तन-पानिप के भाजन दृगंचल तैं,
    उमगि तपन तैं तपाक करि धावै ना।
    कहै रतनाकर त्रिलोक-ओक-मंडल में,
    बेगि ब्रहमद्रव उपद्रव मचावै ना॥
    हर कौं समेत हर-गिरि के गुमान गारि,
    पल में पतालपुर पैठन पठावै ना।
    फैलै बरसाने में न रावरी कहानी यह,
    बानी कहूँ राधे आधे कान सुनि पावै ना॥

    आतुर न होहु ऊधौ आवति दिवारी अबैं,
    वैसियै पुरंदर-कृपा जौ लहि जाइगी।
    होत नर ब्रह्म ब्रह्म-ज्ञान सौं बतावत जो,
    कछु इहिं नीति की प्रतीति गहि जाइगी॥
    गिरिवर धारि जौ उबारि ब्रज लीन्यौ बलि,
    तौ तौ भाँति काहू यह बात रहि जाइगी।
    नातरु हमारी भारी बिरह-बलाय-संग,
    सारी ब्रह्म-ज्ञानता तिहारी बहि जाइगी॥

    आवत दिवारी बिलखाइ ब्रज-बारी कहैं,
    अबकैं हमारैं गाँव गोधन पुजैहै को।
    कहै रतनाकर बिबिध पकवान चाहि,
    चाह सौं, सराहि चख चंचल चलैहै को॥
    निपट निहोरि जोरि हाथ निज साथ ऊधौ,
    दमकलि दिब्य दीपमालिका दिखैहै को। 
    कूबरी के कूबर तैं उबरि न पावैं कान्ह,
    इंद्र-कोप-लोपक गुबर्धन उठैहै को॥

    बिकसति बिपिन बसंतिकावली कौ रंग,
    लखियत गोपिनि के अंग पियराने मैं।
    बौरे बृंद लसन रसाल-बर बारिनि के,
    पिक की पुकार है चबाव उमगाने मैं।
    होत पतझार झार तरुनि-समूहनि कौ,
    बैहरि बतास लै उसास अधिकाने मैं।
    काम-बिधि बाम की कला में मीन मेष कहा,
    ऊधौ नित बसत बसंत बरसाने मैं॥

    ठाम-ठाम जीवन-बिहीन दीन दीसै सबै,
    चलति चबाई-बात तापत घनी रहै।
    कहै रतनाकर न चैन दिन-रैन परै,
    सूखी पत-छीन भई तरुनि अनी रहै॥
    जार्यौ अंग अब तौ बिधाता है इहाँ को भयो,
    तातैं ताहि जारन की ठसक ठनी रहै।
    बगर-बगर बृषभान के नगर नित,
    भीषम-प्रभाव ऋतु ग्रीषम बनी रहै॥

    रहति सदाई हरिआई हिय घायनि मैं,
    ऊरध उसास सो झकोर पुरवा की है।
    पीव-पीव गोपी पीर-पूरित पुकारति हैं,
    सोई रतनाकर पुकार पपिहा की है॥
    लागी रहै नैननि सौं नीर की झरी औ,
    उठै चित मैं चमक सो चमक चपला की है।
    बिनु घनस्याम धाम-धाम ब्रजमंडल में,
    ऊधौ नित बसति बहार बरसा की है॥

    जात घनस्याम के ललात दृग-कंज पाँति,
    घेरी दिख-साध-भौंर-भीर की अनी रहै।
    कहै रतनाकर बिरह-बिधु बाम भयौ,
    चंदहास ताने घात घालत घनी रहै॥
    सीत-घाम-बरषा विचार बिनु आने ब्रज,
    पंचबान-बाननि की उमड़ ठनी रहै।
    काम बिधना सौं लहि फरद दवामी सदा,
    दरद दिवैया ऋतु सरद बनी रहै॥

    रीते परे सकल निषंग कुसुमायुध के,
    दूर दुरे कान्ह पै न तातैं चलै चारौ है।
    कहै रतनाकर बिहाइ बर मानस कौं,
    लीन्यौ है हुलास-हंस बास दूरिवारौ है॥
    पाला परै आस पै न भावत बतास बारि,
    जात कुम्हिलातै हियौ कमल हमारौ है।
    षट ऋतु है है कहूँ अनत दिगंतनि में,
    इत तौ हिमंत कौ निरंतर पसारौ है॥

    काँपि-काँपि उठत करेजौ कर चाँपि-चाँपि,
    उर ब्रजवासिनि कैं निठुर ठनी रहै।
    कहै रतनाकर न जीवन सुहात रंच,
    पाला की पटास परी आसनि घनी रहै॥
    बारिनि में बिसद बिकास ना प्रकास करै,
    अलिनि बिलास में उदासता सनी रहै।
    माधव के आवन की आवति न बातैं नैकुँ,
    नित प्रति तातैं ऋतु सिसिर बनी रहै॥

    माने कब नैंकु ना मनाऐं मनमोहन के,
    तोपै मनमोहिनि मनाए कहा मानौ तुम।
    कहै रतनाकर मलीन मकरी लौं नित,
    आपुनौहीं जाल आपने हीं पर तानौ तुम॥
    कबहूँ परे न नैन-नीर हूँ के फेर माहिं,
    पैरिबौ सनेह-सिंधु माहिं कहा ठानौ तुम।
    जानत न ब्रह्म हूँ प्रमानत अलच्छ ताहि,
    तौपै भला प्रेम कौं प्रतच्छ कहा जानौ तुम॥

    हाल कहा बूझत बिहाल परीं बाल सबै,
    बसि दिन द्वैक देखि दृगनि सिधाइयौ।
    रोग यह कठिन, न ऊधौ कहिबे के जोग,
    सूधौ सौ सँदेस याहि तू न ठहराइयौ॥
    औसर मिलै औ सर-ताज कछु पूछहिं तो,
    कहियौ कछू न दसा देखी सो दिखाइयौ।
    आह कै कराहि नैन नीर अवगाहि कछू,
    कहिबे कौं चाहि हिचकी लै रहि जाइयौ॥

    नंद जसुदा औ गाय गोप गोपिका की कछू,
    बात बृषभान-भौन हूँ की जनि कीजियौ।
    कहै रतनाकर कहतिं सब हा हा खाइ,
    ह्वाँ के परपंचनि सौं रच न पसीजियौ॥
    आँस भरि ऐहै औ उदास मुख ह्वै है हाय,
    ब्रज-दुःख-त्रास की न तातैं साँस लीजियौ।
    नाम कौ बताइ औ जताइ गाम ऊधौ बस,
    स्याम सौं हमारी राम-राम कहि दीजियौ॥

    ऊधो यहै सूधौ सौ सँदेस कहि दीजौ एक,
    जानति अनेक ना बिबेक ब्रज-बारी हैं।
    कहै रतनाकर असीम रावरी तौ छमा,
    छमता कहाँ लौं अपराध की हमारी हैं॥
    दीजै और ताजन सबै जो मन भावै पर,
    कीजै ना दरस-रस-बंचित बिचारी हैं।
    भली हैं बुरी है औ सलज्ज निरलज्ज हू हैं,
    जो कहौ सो हैं पै परिचारिका तिहारी हैं॥

    [उद्धव की ब्रज-बिदाई]

    धाईं जित तित तैं बिदाई-हेत ऊधव की,
    गोपी भरीं आरति सँभारति न साँसु री।
    कहै रतनाकर मयूर-पच्छ कोऊ लिए,
    कोऊ गुंज-अंजली उमाहै प्रेम-आँसु री॥
    भाव-भरी कोऊ लिए रुचिर सजाव दही,
    कोऊ मही मंजु दाबि दलकति पाँसुरी।
    पीत पट नंद जसुमति नवनीत नयौ,
    कीरति-कुमारी सुरवारी दई बाँसुरी॥

    कोऊ जोरि हाथ कोऊ नाइ नम्रता सौं माथ,
    भाषन की लाख लालसा सौं नहि जात हैं।
    कहै रतनाकर चलत उठि ऊधव के,
    कातर है प्रेम सौं सकल महि जात हैं।
    सबद न पावत सो भाव उमगावत जो,
    ताकि-ताकि आनन ठगे से ठहि जात हैं।
    रंचक हमारी सुनौ रंचक हमारी सुनौ,
    रंचक हमारी सुनौ कहि रहि जात हैं॥

    दाबि-दाबि छाती पाती लिखन लगायौ सबै,
    ब्यौंत लिखिबै कौपै न कोऊ करि जात हैं।
    कहै रतनाकर फुरति नाहिं बात कछू,
    हाथ धर्यौ ही-तल थहरि थरि जात है॥
    ऊधौ के निहारैं फेरि नैंकु धीर जोरैं पर,
    ऐसौ अंग ताप कौ प्रताप भरि जात है।
    सूखि जाति स्याही लेखिनी कैं नैंक डंकु लागैं,
    अंक लागैं कागद बररि बरि जात है॥

    कोऊ चले काँपि संग कोऊ उर चाँपि चले,
    कोऊ चले कछुक अलापि हलबल से।
    कहै रतनाकर सुदेस तजि कोऊ चले,
    कोऊ चले कहत सँदेस अबिरल से॥
    आँस चले काहू के सु काहू के उसाँस चले,
    काहू के हियै पै चंदहास चले हल से।
    ऊधव कैं चलत चलाचल चली यौं चल,
    अचल चले औ अचले हू भए चल से॥

    दीन्यौ प्रेम-नेम-गरुवाई गुन ऊधव कौं,
    हिय सौं हमेव-हरुवाई बहिराइ कै।
    कहै रतनाकर त्यौं कंचन बनाई काय,
    ज्ञान-अभिमान की तमाई बिनसाइ कै॥
    बातनि की धौंक सौं धमाइ चहुँ कोदनि सौं,
    निज बिरहानल तपाइ पघिलाइ कै।
    गोप की बथूटी प्रेमी-बूटी के सहारे मारै,
    चल-चित-पारे की भसम भुरकाइ कै॥

    [उद्धव का मथुरा लौटना]

    गोपी, ग्वाल, नंद, जसुदा सौं तौ बिदा है उठे,
    उठत न पाय पै उठावत डगत हैं।
    कहै रतनाकर सँभारि सारथी पै नीठि,
    दीठिनि बचाइ चल्यौ चोर ज्यौं भगत हैं॥
    कुंजनि की कूल की कलिंदी की रुऐंदी दसा,
    देखि-देखि आँस औ उसाँस उमगत हैं।
    रथ तैं उतरि पथ पावन जहाँ हीं तहाँ,
    बिकल बिसूरि धरि लोटन लगत हैं॥

    भूले जोग-छेम प्रेम-नेमहिं निहारि ऊधौ,
    सकुचि समाने उर-अंतर हरास लौं।
    कहै रतनाकर प्रभाव सब ऊने भए,
    सूने भए नैन बैन अरथ-उदास लौं॥
    माँगी बिदा माँगत ज्यौं मीच उर भीचि कोऊ,
    कीन्यौ मौन गौन निज हिय के हुलास लौं।
    बिथकित साँस लौं चलत रुकि जात फेरि,
    आँस लौं गिरत पुनि उठत उसास लौं॥

    चल-चित पारद की दंभ कंचुली कै दूरि,
    ब्रज-मग-धूरि प्रेम-मूरि सुख सीली लै।
    कहै रतनाकर सु जोगनि बिधान भावि,
    अमित प्रमान ज्ञान-गंधक गुनीली लै॥
    जारि घट-अंतर हीं आह-धूम धारि सबै,
    गोपी बिरहागिनि निरंतर जगीली लै॥
    आए लौटि ऊधव बिभूति भव्य भायनि की,
    कायनि की रुचिर रसायन रसीली लै॥

    [उद्धव का मथुरा पहुँचना]

    आए लौटि लज्जित नवाए नैन ऊधौ अब,
    सब सुख-साधन कौ सूधौ सौ जतन लै।
    कहै रतनाकर गवाँए गुन गौरव औ,
    गरब-गढ़ी कौ परिपूरन पतन लै॥
    छाए नैन नीर पीर-कसक कमाए उर,
    दीनता अधीनता के भार सौं नतन लै।
    प्रेम-रस रुचिर बिराग-तूमड़ी मैं पूरि,
    ज्ञान-गूदड़ी में अनुराग सौ रतन लै॥

    आए दौरि पौरि लौं अवाई सुनि ऊधव की,
    और ही बिलोकि दसा दृग भरि लेत हैं॥
    कहै रतनाकर बिलोकि बिलखात उन्हें,
    येऊ कर काँपत करेजैं धरि लेत हैं॥
    आवति कछुक पूछिबे औ कहिबे की मन,
    परत न साहस पै दोऊ दरि लेत हैं।
    आनन उदास साँस भरि उकसौहैं करि,
    सौहैं करि नैननि निचौंहैं करि लेत हैं॥

    प्रेम-मद-छाके पग परत कहाँ के कहाँ,
    थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है।
    कहै रतनाकर यौं आवत चकात ऊधौ,
    मानौ सुधियात कोऊ भावना भुलाई है॥
    धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं,
    सारत बहोलिनि जो आँस-अधिकाई है।
    एक कर राजै नवनीत जसुदा कौ दियौ,
    एक कर बंसी बर राधिका-पठाई है॥

    ब्रज-रज-रंजित सरीर सुभ ऊधव कौ,
    धाइ बलबीर ह्वै अधीर लपटाए लेत।
    कहै रतनाकर सु प्रेम-मद-माते हेरि,
    थरकति बाँह थामि थहरि थिराए लेत॥
    कीरति-कुमारी के दरस-रस सद्य ही की,
    छलकनि चाहि पलकनि पुलकाए लेत।
    परन न देत एक बूंद पुहुमी की कोंछि,
    पोंछि-पोंछि पट निज नैननि लगाए लेत॥

    [उद्धव के वचन श्री भगवान प्रति]

    आँसुनि की धार औ उभार कौं उसाँसनि के,
    तार हिचकिनि के तनक टरि लेन देहु।
    कहै रतनाकर फुरन देहु बात रंच,
    भावनि के विषम प्रपंच सरि लेन देहु॥
    आतुर ह्वै और हू न कातर बनावौ नाथ,
    नैसुक निवारि पीर धीर धरि लेन देहु।
    कहत अबै हैं कहि आवत जहाँ लौं सबै,
    नैंकु थिर कढ़त करेजौ  करि लेन देहु॥

    रावरे पठाए जोग देन कौं सिधाए हुते,
    ज्ञान गुन गौरव के अति उद्गार में।
    कहै रतनाकर पै चातुरी हमारी सबै,
    कित धौं हिरानी दसा दारुन अपार में॥
    उड़ि उधिरानी किधौं ऊरध उसासनि में,
    बहि धौं बिलानी कहूँ आँसुनि की धार में।
    चूर है गई धौं भूरि दुख के दरेरनि में,
    छार ह्वै गई धौं बिरहानल की झार में॥

    सीत-घाम-भेद खेद-रहित लखाने सबै,
    भूले भाव-भेदता निषेधन-बिधान के।
    कहै रतनाकर न ताप ब्रजबालनि के,
    काली-मुख-ज्वाल ना दवानल समान के॥
    पटकि पराने ज्ञान-गठरी तहाँ हीं हम,
    थमत बन्यौ ना पास पहुँचि सिवान के।
    छाले परे पगनि अधर पर जाले परे,
    कठिन कसाले परे लाले परे प्रान के॥

    ज्वालामुखी गिरि तैं गिरत द्रवे द्रव्य कैधौं,
    बारिद पियौ है बारि बिष के सिवाने में।
    कहै रतनाकर कै काली दाँव लेन-काज,
    फेन फुफकारै उहिं गावँ दुख-साने में॥
    जीवन बियोगिनि कौ मेघ अँचयो सो किधौं,
    उपच्यौ पच्यौ न उर ताप अधिकाने में।
    हरि-हरि जासौं बरि-बरि सब बारी उठैं,
    जानैं कौन बारि बरसत बरसाने में॥

    लैकै पन सूछम अमोल जो पठायौ आप,
    ताकौ मोल तनक तुल्यौ न तहाँ साँठी तैं।
    कहै रतनाकर पुकारे ठौर-ठौर पर,
    पौरि बृषभानु की हिरान्यौ मति नाठी तैं॥
    लीजै हेरि आपुहीं न हेरि हम पायौ फेरि,
    याही फेर माहिं भए माठी दधि आँठी तैं।
    ल्याए धूरि पूरि अंग अंगनि तहाँ की जहाँ,
    ज्ञान गयौ सहित गुमान गिरि गाँठी तैं॥

    ज्यौंहीं कछु सँदेस लग्यौ त्यौंहीं लख्यौ,
    प्रेम-पूर उमँगि गरे लौं चढ्यौ आवै है।
    कहै रतनाकर न पाँव टिकि पावैं नैंकु,
    ऐसौ दृग-द्वारनि स-बेग कढ्यौ आवै है॥
    मधुपुरि राखन कौ बेगि कछु ब्यौंत गढ़ौ,
    धाइ चढ़ौ बट कै न जौपै गढ्यौ आवै है।
    आयौ भज्यौं भूपति भगीरथ लौं हौं तौ नाथ,
    साथ लग्यौ सोई पुन्य-पाप बढ्यौ आवै है॥

    जैहै ब्यथा बिषम बिलाइ तुम्हैं देखत ही,
    तातैं कही मेरी कहूँ झूँटि ठहरावौ ना।
    कहै रतनाकर न याही भय भाषैं भूरि,
    याही कहैं जावौ बस बिलँब लगावौ ना॥
    एतौ और करत निवेदन स-बेदन हैं,
    ताकौ कछु बिलग उदार उर ल्यावौ ना॥
    तब हम जानैं तुम धीरज-धुरीन जब,
    एक बार ऊधौ बनि जाइ पुनि जावौ ना॥

    छावते कुटीर कहूँ रम्य जमुना कैं तीर,
    गौन रौन-रेती सौं कदापि करते नहीं।
    कहै रतनाकर बिहाइ प्रेम-गाथा गूढ़,
    स्रौन रसना में रस और भरते नहीं॥
    गोपी ग्वाल बालनि के उमड़त आँसू देखि,
    लेखि प्रलयागम हूँ नैंकु डरते नहीं।
    होतौ चित चाव जौ न रावरे चितावन कौ,
    तजि ब्रज-गाँव इतै पावँ धरते नहीं॥

    भाठी कै बियोग जोग-जटिल लुकाठी लाइ,
    लाग सौं सुहाग के अदाग पिघलाए हैं।
    कहै रतनाकर सुबृत्त प्रेम साँचे माहिं,
    काँचे नेम संजम निबृत्त कै ढराए हैं।
    अब परि बीच खीचि बिरह-मरीचि-बिंब,
    देत लव लाग की गुविंद-उर लाए हैं।
    गोपी-ताप-तरुन-तरनि-किरनावलि के,
    ऊधव नितांत कांत-मनि बनि आए हैं॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रत्नाकर रचनावली (पृष्ठ 1)
    • संपादक : कमलाशंकर त्रिपाठी
    • रचनाकार : जगन्नाथदास रत्नाकर
    • प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
    • संस्करण : 2009

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