पाहुड़ दोहा-16

pahuD doha 16

मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-16

मुनि रामसिंह

और अधिकमुनि रामसिंह

    छंडेविणु गुणरयणणिहि अग्घथडिहिं घिप्पति।

    तहिं संखाहं विहाणु पर फुक्किज्जंति भंति॥

    महुयर सुरतरुमंजरिहिं परिमलु रसिवि हयास।

    हियडा फुट्टिवि कि मुयउ ढंढोलंतु पलास॥

    मुंडु मुंडाइवि सिक्ख धरि धम्महं वद्धी आस।

    णवरि कुहुंबउ मेलियउ छुहु मिल्लिया परास॥

    णग्गत्तणि जे गव्विया विग्गुत्ता गणंति।

    गंथहं बाहिरभितरिहिं एक्कु ते मुयंति॥

    अम्मिय इहु मणु हत्थिया विंझह जंतउ वारि।

    तं भंजेसइ सीलवणु पुणु पडिसइ संसारि॥

    जे पढिया जे पंडिया जाहिं मि माणु मरट्टु।

    ते महिलाण हि पिडि पडिय भिमियहं जेम घरट्टु॥

    विद्धा वम्मा मुट्ठिइण फसिवि लिहिहि तुहुं ताम।

    जह संखहं जीहालु सिवि सड्डच्छलइ जाम॥

    पतिय तोडहि तडतडह णाइं पइट्ठा उट्टु।

    एव जाणहि मोहिया को तोडइ को तुट्टु॥

    पतिय पाणिउ दब्भ तिल सव्वइं जाणि सवण्णु।

    जं पुणु मोक्खहं जाइवउ तं कारणु कु अण्णु॥

    पतिय तोडि जोइया फलहिं जि हत्थु वहि।

    जसु कारणि तोडेहि तुहुं सो सिउ एत्थु चढाहि॥

    सागर का साथ छोड़ने से शंख की कैसी हालत होती है? अर्थात् बाज़ार में उसका विक्रय होता है और बाद में किसी के मुँह से फूँका जाता है, इसमें संदेह नहीं।

    हे हताश मधुकर! कल्पवृक्ष की मंजरी का सुगंधित रस चखकर भी तू गंध रहित पलाश के ऊपर क्यों मंडराता है?—अरे! ऐसा करते हुए तेरा हृदय फट क्यों नहीं गया? और तू मर क्यों नहीं गया?

    मूंड मुंडाया, उपदेश लिया, धर्म की आशा बढ़ी एवं कुटुंब को छोड़ा। पराए की आशा भी छोड़ी—इतना सब करने पर भी जो नग्नत्व से गर्वित है और त्रिगुप्ति की परवाह नहीं करता, उसने तो बाह्य या आंतरिक एक भी ग्रन्थ-परिग्रह को नहीं छोड़ा।

    अरे, झ्स मनरूपी हाथी को विंध्य पर्वत की ओर जाने से रोको, अन्यथा वह शील के वन को तोड़ देगा तथा जीव को वापस संसार में पटक देगा।

    जो पढ़े-लिखे हैं, जो पंडित है, जो मान-मर्यादावाले हैं, वे भी स्त्रियों के मोह में पड़कर चक्की के पाट के समान चक्कर काटते हैं।

    रे विषयाध! तू विषयों को मुट्ठी में लेकर तब तक चख ले जब तक जिह्वा-लोलुपी शंख की तरह तेरा शरीर सड़कर शिथिल हो जाए!

    हे जीव! जैसे वन में ऊँट ने प्रवेश किया हो, वैसे तू पत्तियाँ तोड़ता है (प्रकृति के साथ हिंसा करता है), परंतु मोह के वशीभूत होकर तू यह नहीं जानता कि कौन तोड़ता है और कौन टूटता है?

    पत्ता, पानी, दर्भ, तिल—इन सबको तू अचेतन जान। यदि तुम्हें मोक्ष चाहिए तो उसका कारण कोई अन्य ही है—ऐसा जान।

    हे योगी! पत्तों को मत तोड़ और फलों को भी हाथ मत लगा, किंतु जिसके लिए तू इन्हें तोड़ता है, उसी शिव को यहाँ चढ़ा दे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 34)
    • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
    • रचनाकार : मुनि राम सिंह
    • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
    • संस्करण : 1992

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