सांभर युद्ध

saa.mbhar yuddh

कृष्ण भट्ट

कृष्ण भट्ट

सांभर युद्ध

कृष्ण भट्ट

और अधिककृष्ण भट्ट

    (दोहा)

    गुरु गुबिंद गनपति गिरा, गवरी गिरीस मनाय।

    गावत गुन जयसाह को, सुकवि कलानिधि राय॥

    हुकम बहादुर साह कैं, आयो सैद हुसैन।

    हुते भूप जयसाह जँहँ, सांभर सर सजि सैंन॥

    उत अरि सैद हुसैंन अरु, इतैं भूप जयसाह।

    मच्यो दुहुंनि संग्राम जँहँ, आये अमर उमाह॥

    (छंद त्रिभंगी)

    सैदन दल के समरनि बंके,

    दुंदुभि डंके जोर दियें।

    धर होत धमंके सुरगन संके,

    परम अतंके लोक हियें॥

    हय टापनि टुट्टे गिर तट फुट्टे,

    फनपति कुट्टे सहस फना।

    धूली भर जुट्टे अंबर धुट्टे,

    पावस छुट्टे मनहु घना॥

    जयसाहि सवाई पर दल घाई,

    अरिन अवाई देखि खरैं।

    चड्ढ़े दल साजैं संगर गाजैं,

    रवि ज्यौं राजैं तेज धरैं॥

    संभर सर तीरनि केसर नीरनि,

    रंगे चीरनि चारु ठये।

    दै दुंदुभि धीरनि बंके बीरनि,

    कूरम भीरन करत भये॥

    सेखावत सच्चेपन के रच्चे,

    समर विरच्चे रोस लियें।

    बांकावत बांके दलबल हांके,

    जिरह झनाके जोर कियें॥

    कल्यान पचायन के वंहु भायन,

    कै चित चायन भट आये।

    रन अहरन हीरा से मुख नीरा,

    धरत हमीरावत धाये॥

    सिव ब्रह्मतनें के भट अवनें के,

    साथ घनें के दूलह से।

    कोहे कुंभानी मन अभिमानी,

    लहि प्रभु वांनी रन विहसे॥

    बह सिपहसिलारन के सिरदारन,

    सजि करवारन रेर करी।

    पावस घन तूले दिन अनकूले,

    सब ही फूले निरख अरी॥

    नाथावत रूरे संगर सूरे,

    पन के पूरे उमगि चढे।

    नर वीर नरूके नैंक चूके,

    रोस बभूके लेत बढे॥

    खंगरावत खंग्गे खरे उमंग्गे,

    चढ़ि हय चंग्गे खमसि चले।

    कुँभावत कररे छिन अररे,

    दलवल दररे देत भले॥

    रजपूत अनेरे ओर घनेरे,

    नृपवर नेरे व्है उमड़े।

    कूरम कुल जाये मुख्य गनाये,

    घन ज्यों आये ते घुमड़े॥

    नव कोटी नायक तहां सहायक,

    भो पर घायक अजित बली।

    राठौड़ समाजा लै रन ताजा,

    किय महाराजा भीर भली॥

    उत घोरन डारैं सोरन यारैं,

    जोरन धारैं धुकि धाये।

    सैयद मुख नीकें अली अली कें,

    सद्द नजीकें पिलि आये॥

    भारी तिहिं वेला भो मुख मेला,

    दुहुं दल ठेलाठेल मची।

    कीनैं भट सेला सेलन खेला,

    भेलक भेला रार मची॥

    तहँ तुरही बज्जैं दुदभी गज्जैं,

    जंगनि सज्जैं ढोल दये।

    सिंधु सुर छाये मारू गाये,

    बीरनि भाये राग भये॥

    बंदीजन कित्तैं कहत कवित्तैं,

    सुनि भय बित्तैं धीर बढैं।

    भट अतर मोदैं घुरत विनोदैं,

    तिहि चहु कुद्दै उररि कढैं॥

    तहँ तोपें रढैं, गोला कढैं,

    धुंधरि बढैं नभ मढैं।

    हय हाथी फुट्टैं पख्खर टुट्टैं,

    वीरन हुट्टैं रन चढ़ैं॥

    पावस झर लग्गैं बान उमंग्गैं,

    आय बिलग्गैं तन दन दग्गें।

    इक प्रांननि मुक्कैं इक्कैं कुक्कैं,

    इक मुझुक्कैं रिस पग्गैं॥

    इक लै लै बागैं धावत आगैं,

    लागैं लागैं बैंन कहै।

    धर मसकत बागैं खोलत खागैं,

    खेलत फागैं मन उमहैं॥

    इक हत बरछी बाहत अछी,

    धार तिरछी जोर जई।

    सो पर उर गछी लखिय चछी,

    ज्यौं जल मछी गरक भई॥

    तहँ खग्गा खग्गी केलि उमग्गी,

    अंग्गा अग्गी बाह भई।

    रिस ज्वाला लग्गी जाहर जग्गी,

    मनहुं दवग्गी बनन छई॥

    हुव कट्टा कट्टी झट्टा झट्टी,

    मुंडनि पट्टी पुहमि डटी।

    रुंडावलि उठ्ठिय डिठिय रुठिय,

    अन्तर टुठिय अतिहि तटी॥

    छूटैं गुड चड्ढी ज्वालन वड्ढी,

    फौंजें डड्ढी गोलन सौं।

    गज्जैं हथनालैं अति हि उतालैं,

    झंपति झालैं झोलन सौं॥

    तकि लंबे पल्लैं तुवकैं चल्लैं,

    तडपति भल्लैं तडित मनौं।

    बारूद पसारी चहुँ दिसि भारी,

    झुकति अँध्यारी धूम घनौं॥

    भट पेलि अरावनि तुरी सितावनि,

    दावि रकावनि बाग लये।

    कीनै बग मेला कैं तिहिं खेला,

    भेलक भेला आय भये॥

    कर खग्गनि पारैं मुंडनि झारैं,

    समर अखारैं केलि करैं।

    बड डील विदारैं करत दुवारैं,

    मनु घनियारैं चीर धरैं॥

    बंके कछवाहे परम उछाये,

    इत चित चाहे काम करैं।

    उत सैद हुसैंना की बहु सैंना,

    राते नैंना जोर लरैं॥

    तहँ सुभटन साजि तीरमदाजी,

    सनमुख बाजी पेलि करैं।

    भालन सौं फोंरै बखतर कोरैं,

    जनु इनघोरैं सरनि झरैं॥

    पिलि इक्क हकारैं करि ललकारैं,

    तेगनि डारैं तकि पर कैं।

    इक होत उतारैं खंजर डारैं,

    पिंजर फारैं दर वर कैं॥

    इक गुपति वाहैं अन्त्रनि गाँहै,

    बीरनि ढाहैं घोरन सौं।

    इक संगर कोहैं जमधर यौं हैं,

    प्रान विमोहैं जोरन सौं॥

    इक लेत दपट्टैं आनि लपट्टैं,

    करत झपट्टैं पट्टन सौं।

    ले सांग रपट्टैं इक अरि डट्टैं,

    इक्क सिमट्टैं ठट्टन सौं॥

    इक घाव पलट्टै घतत अटट्टैं,

    जाय उलट्टैं दू छन मैं।

    इक अन्त गरट्टैं होत हट्टैं,

    धरत मरट्टै मूछन मैं॥

    इक ताकत गोंके बुगद निबौंकें,

    बंकी बौंकें इक खुर सैं।

    फरसा झर झौंकैं इक घनौंकैं,

    मारत गौंकैं मद झर सैं॥

    बांहैं इक गाढैं गहि जमडाढैं,

    सो ठिक ठाढे तन पैठी।

    तहँ सुभट सम्यानी कोतह खांनी,

    करि ग्रह तांनी घर बैठी॥

    तहँ हथ्था-हथ्थी बथ्था-बथ्थी,

    सथ्था-सथ्थी सुभट फिरैं।

    तहँ गजवर चढ्यो सय दल वढ्यो,

    फिरि तल वढ्यो रोस निरैं॥

    तह तकि किहुं दग्यो तेजनि जग्यो,

    गोला लग्यो इक्क खरैं।

    छिन खल धुक्किय हा हा कुक्किय,

    प्राननि मक्किय रोस करैं॥

    तब सब कछवाहन समर सिपाहन,

    किय अगवाहन खेत खरी।

    हत अंत्र लेते सैयद केते,

    लाज समेते सहज अरी॥

    सँभर सर मांहीं किते डुबांहीं,

    कितेक गिरांही खाय हहा।

    जयसाह सवाई जग सुखदाई,

    इहिं विधि पाई जीति महा॥

    तहँ भुविअ अरि मुंड नि बहुँ रुंडनि,

    सुंड भुसुंडनि ढेर परे।

    ते छपि अति डंडनि श्रोनित कुंडनि,

    कुंजरि डुंडनि रंग झरे॥

    बिकराल कपालन के बर तालन,

    तहँ बेतालन नाच मच्यो।

    अतनन के जालन गुहि नव मालन,

    संकर ख्यालन जोर रच्यो॥

    (छप्पय)

    तहँ नचत ख्याल लग्गे विसाल पद चरन ताल सँग।

    रुचिर माल गल चंद्र भाल रंग रुहिर ताल अंग॥

    पर कपाल विकराल ताल दिय अति उताल गति।

    लसत लाल पट धरैं हाल जुग्गनि निहाल मति॥

    पिय महाकाल की बाल निज काली परम खुँस्याल तर।

    बिसनेस लाल भुवपाल जहँ फतै लहिय करवाल कर॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : सांभर-युद्ध (पृष्ठ 9)
    • संपादक : रघुबीरसिंह
    • रचनाकार : कृष्ण भट्ट
    • प्रकाशन : राजस्थान साहित्य समिति, बिसाऊ (राजस्थान)

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