सुखनि समाज साज सजे तित सेवैं सदा

sukhani samaj saj saje tit sewain sada

घनानंद

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सुखनि समाज साज सजे तित सेवैं सदा

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और अधिकघनानंद

    सुखनि समाज साज सजे तित सेवैं सदा

    जित नित नये हित-फंदनि गसत हौ।

    दु:ख-तम पुंजनि पठाय दै चकोरनि पै

    सुधाधर जान प्यारे भलें ही लसत हौ॥

    जीव सोच सूखै गति सुमिरें अनंदघन

    कित हूँ उधरि कहूँ धुरि कै रसत हौ।

    उजरनि बसी है हमारी अँखियानि देखौ

    सुबह सुदेस जहाँ भावते बसत हौ॥

    विरहिणी कह रही है कि मैं यहाँ निराश जीवन बिता रही हूँ और वहाँ प्रियतम आनंद और उल्लासपूर्ण परिस्थिति में रह रहे हैं। वह कहती है कि हे प्रिय! तुम प्रेम के नित्य-नवीन फंदों में लोगों को फँसाते रहते हो। वहाँ तो तुम अनेक प्रकार के सुखों का सजा सजाकर सदैव आनंदमग्न रहते हो। हे चंद्रमा के समान सुजान! तुम दु:ख रूपी अंधकार के समूह को चकोरों के पास भेजते हुए बड़े भले लगते हो अर्थात् शोभा नहीं देते हो। अर्थात् तुम्हारा अपने विरह-पीड़ित प्रेमी को दर्शन देना वैसा ही है जैसा चकोरों के पास चंद्रमा का स्वयं जाकर अंधकार को भेजना। तुम हमें आकर दर्शन नहीं देते हो, यह तुम्हारे लिए अपयश का कारण है। हे आनंद के मेघ! तुम्हारी इस चाल का ध्यान करके मेरा हृदय इस सोच में सूखा जाता है कि तुम कहीं से उचट जाते हो और कहीं घुल-मिलकर प्रेम-रस की वर्षा करते हो। श्लेष से इसका अर्थ यह होगा कि वर्षा से मेघ कहीं धारासार वर्षा करते हैं और कहीं उघड़ जाते हैं। उसकी यह चाल प्राणों को सुखाने वाली है। प्रियतम! देखो तो सही, मेरी इन आँखों में तो वीरानी बस गई है अर्थात् मेरी आँखें तुम्हारे वियोग में उदास और मलिन रहती हैं। मुझे भाने वाले प्रिय, जहाँ तुम रह रहे हो, वह बसा हुआ सुंदर देश है अर्थात् जिन आँखों के समक्ष तुम इस समय रहते हो, उनका देश बसा हुआ है, वे आँखें प्रसन्न और खिली हुई हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद कवित्त (प्रथम आनन) (पृष्ठ 201)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान
    • संस्करण : 1972

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