तवायफ़

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उद्भ्रांत

उद्भ्रांत

तवायफ़

उद्भ्रांत

और अधिकउद्भ्रांत

     

    एक

    सृष्टि के आदि से ही
    क़ायम है उसकी सत्ता

    वह दुनिया के
    सबसे पुराने
    व्यवसाय में है

    उसे फ़ख़्र है
    कि दुनिया के
    तमाम मर्दों के लिए
    और तमाम
    सती-साध्वियों के लिए भी
    जंगल, समाज और सत्ता से स्वीकृत
    बेहतर समझे जाते
    विकल्प की जननी है वह!

    अपनी उपस्थिति से
    बचा लेती है
    कामोद्दीप्त समाज को
    आग में जलकर
    राख होने से!

    उसकी दो अंगुल जगह में
    समूची सृष्टि की पवित्रता,
    घंटे, घड़ियाल,
    मृदंग और मँजीरे,
    मंदिर और मस्जिद
    और गिरजाघर,
    संपूर्ण धार्मिकता,
    मज़हबी तहज़ीब,
    अपने-अपने
    ख़ुदा और ईश्वर
    और गुरु और क्राइस्ट!

    उस विवके और आनंद के
    शून्य में
    समाया है
    समूचा ब्रह्मांड

    जिसे
    जब चाहती है वह
    गंगाजल से धोकर
    कर देती है
    फिर से पवित्र

    वह पुण्य कार्य करती है
    मगर पापी कहलाती है!

    पाषाण युग के
    बार्टर सिस्टम को
    तन की कसौटी पर कसते

    आज के
    भूमंडलीकरण के युग के
    एकमात्र महाराजा—
    बाज़ार की
    एकमात्र महारानी!

    ख़रीदने को तत्पर
    महाराजा के मुकुट से लेकर
    नौकरशाही का जूता तक!

    दो

    क्या एक तवायफ़
    जिस्म का सौदा करते समय
    करती है आत्मा का भी?

    क्या एक तवायफ़ जानती है
    कि वह पैदा नहीं हुई
    उसे बनाया गया समाज के
    उच्च पदासीन, पर्दानशीन,
    सभ्य कहे जाते
    धर्म के ठेकेदारों द्वारा ही?

    सवाल है कि क्या एक तवायफ़
    माँ होने के अकल्पनीय स्वर्गिक सुख से
    स्वयं को करती है वंचित सायास?

    यह भी कि
    क्या स्वयं को बेचते हुए बिस्तर पर
    कभी उसे आती है याद अपनी माता की
    जिसने उसे जाने किन परिस्थितियों में जन्म दिया
    हसरत से याकि बड़ी नफ़रत से?

    या अपने पिता की
    जो मान चुका होगा मन ही मन
    कि बेटी उसकी
    इस दुनिया से ले चुकी विदा?
    या वह जो अपने
    क्षणिक और जंगली सुख की तलाश में
    रोप गया उसे
    किसी दुर्गंध से भरी गंदी और बदसूरत
    गली की उर्वर मिट्टी में?

    कोई भी रिश्तेदार इस नरक में भी
    अब नहीं पहचानेगा उसे

    वह ज़िंदा एक लाश है ठंडी
    संबंधों की ऊष्मा नहीं उसमें
    हर पल वह बढ़ती है मृत्यु की ओर तेज़ गति से

    उससे भी तेज़ी से कामना वह करती है
    मृत्यु को तत्काल वरण करने की

    ‘तवायफ़ हमारे समाज के लिए एक गंदी गाली है’

    ‘तवायफ़ हमारे समाज के दामन पर पड़ा
    एक धब्बा अश्लील है’

    उसके बारे में तरह-तरह की सूक्तियाँ
    और सुभाषित गढ़ता है हमारा समाज यह

    मगर इतनी ज़हमत उठाता नहीं कोई कि
    खोजे इस समस्या का मूल
    गहरे जाए इसकी जड़ में

    दुख है नहीं सोचता कोई—
    कैसे हो सकेगा
    उस कारण का युक्तिपूर्ण निवारण!

    स्रोत :
    • पुस्तक : अस्ति (पृष्ठ 390)
    • रचनाकार : उद्भ्रांत
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
    • संस्करण : 2011

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