यह स्त्री कितनी नकचढ़ी है
ye istri kitni nakachDhi hai
इस स्त्री को यह पृथिवी पसंद नहीं
उसे लगता है, यह किनारों से कुछ छोटी है
इस स्त्री को चाँद कुछ ठीक नहीं लग रहा
उसे लगता है, यह कुछ अधिक ऊपर है
इस स्त्री को सूरज से भी काफ़ी शिकायतें हैं
उसे लगता है, यह तपने के समय ठंडा
और ठंडे रहने के समय गरम रहता है
इस स्त्री को मौसमों से भी बेशुमार शिकायतें हैं
सर्दियाँ इतनी ठिठुरन भरी और गर्मियाँ
इतनी तपिश लेकर क्यों चलती हैं
वसंत कुछ-कुछ पतझर जैसा
और हेमंत में शिशिर जैसा क्यों लगता है
वर्षा कभी-कभी भटककर शरद तक क्यों चली जाती है
यह स्त्री प्रकृति पर कितनी कुपित है
इस स्त्री को पुरुष बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं
उसे लगता है, पुरुष सिर्फ़ बेटे के रूप में हो तो हो
वह पति तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए
वह जब पति कह रही होती है तो
उसके चेहरे के हाव-भाव कुछ ऐसा अर्थ देते हैं
मानो वह कमीना या ऐसा ही कुछ कह रही हो!
इस स्त्री को सिर्फ़ अच्छा लगता है देखना
नदियाँ, पहाड़, झरने, तालाब, बावड़ियाँ, झीलें
फल-फूल लदे वृक्ष और पक्षियों का कलरव
लेकिन स्त्री तब भी शिकायतें करने लगती है
ये वीज़ा, पासपोर्ट, सरहद, सेना,
आंतरिक सुरक्षा, बाह्य सुरक्षा, राष्ट्र, सरकार
ये सब क्या बकवास है!
स्त्री ने अपनी साड़ी अब कमर में खोंस ली है
और उसने ग़ुस्से में झाड़ू हाथ में उठा लिया है!
- रचनाकार : त्रिभुवन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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