धरती का चक्कर

dharti ka chakkar

अर्चना लार्क

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धरती का चक्कर

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    धरती का एक चक्कर लगाकर लौटी हूँ

    एक कोने से दूसरे कोने तक बीच के रास्ते

    छवियाँ साथ चलती रही हैं

    एक कपड़े का घर ओस से भीगा हुआ

    बच्चे जन्म और मृत्यु के बीच हैं

    जिनकी माँ माइनस तापमान से जूझती मर चुकी है

    घास-फूस-कपड़े के कई घर किसी और के सपुर्द हो चुके हैं

    रात जितनी अँधेरी है उससे ज़्यादा अँधेरी दिख रही है

    कुछ दूरी पर एक परिवार

    जिसने अनगिनत रिश्तों को अपमानित किया है

    घर का लड़का सुदूर यात्राओं पर है

    और माँ को अपने सूरज के लिए

    किसी चाँद की तलाश है

    थोड़ी दूर खड़ी एक बस में भगदड़ मची है

    एक लड़की जो निर्वस्त्र कर दी गई है

    सड़क पर पीठ के बल पड़ी हुई बेहोश है

    एकाएक सारी दुनिया नंगी हो गई है

    धरती का एक चक्कर लगा लौट आई हूँ

    एक लड़की ने

    प्रेम की दुनिया बसाने की ख़ातिर एक प्रस्ताव रखा है

    मुहल्ले में उसका नाम शूपर्णखा पड़ गया है

    सोचती हूँ अगर कुछ लौटकर आता है

    तो पहले उन बच्चों की माँ लौटकर आए

    उनके लिए एक घर आए और खाने को रोटी आए

    लड़की को उसका प्रेम मिले

    जिसमें वह एक संसार बसा सके

    मुझे थकने के बाद एक अच्छी नींद मिल सके

    कुछ शब्द मिलें जिनके भीतर दुनिया सुंदर लगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अर्चना लार्क
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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