अस्मिता

asmita

ज़ुबैर सैफ़ी

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अस्मिता

ज़ुबैर सैफ़ी

और अधिकज़ुबैर सैफ़ी

    मेरे पैदा होने के समय से पहले से ही

    मेरी पैंट उतारी जाती रही है

    मेरी खाल के लिए

    मैं पैदा हुआ तो

    मेरी पैंट हज्जाम ने उतारी

    खाल के बदले मुझे मज़हब अता कर दिया गया

    मैं जब 1947 से बचकर 1964 की शरण में पहुँचा

    तो वो बंगाल था—

    टैगोर का शांतिनिकेतन,

    नज़रूल की कविताएँ,

    दुर्गा पूजा के मंडप थे,

    कोलकाता था…

    मेरी पैंट को उन्होंने फिर पकड़ लिया

    मेरी पैंट उतारकर

    उन्होनें मेरी ग़ायब खाल को देखा

    और मेरी आँखों में सलाख़ें दे दीं

    अब मैं भी अपनी खाल जो पहले से नहीं थी,

    नहीं देख सकता था

    मेरी फटी पैंट मेरी पहचान के साथ साल्टलेक में फेंक दी गई

    1969 और 1970—

    मैं अपनी जान बचाकर

    गुजरात और भिवंडी दोनों जगह

    अपनी पैंट को छिपाते फिरता रहा

    मगर फिर भी जाने कैसे उन्हें ख़बर मिल गई

    मुझे फिर अपनी ग़ायब खाल अपनी जान से प्यारी लगी

    मुझे भागना पड़ा

    मैं जब देश के सबसे बड़े सूबे में पहुँचा तो

    मैंने पीतल के बर्तन बनाना सीखने की कोशिश की

    मगर मेरी खाल जो मेरी पैंट के नीचे थी

    उससे एक डोरी बँधी थी

    जो 1980 के मुरादाबाद तक भी उन्हें ले पहुँची

    उन्होंने बर्तन की ठक-ठक को ठाँय-ठाँय में तब्दील कर दिया

    मेरी पहचान—मेरी ग़ायब खाल फिर से मेरे पीछे थी

    मेरी पैंट फिर उतरी

    लेकिन मैं फिर बच गया

    जान बचाकर भागना बहादुरी नहीं तो कायरता भी नहीं है

    जान जाने का ख़दशा हो तो मेरे मज़हब में हराम हलाल हो जाता है

    मैंने असम जाने का अहद किया

    मैं नेल्ली पहुँचा इस भरोसे के साथ कि

    वहाँ मेरी पैंट को कोई उतारकर नहीं देखेगा

    कि मेरी पैंट के नीचे मेरा मज़हब है

    लेकिन 1983 ने भी मेरे साथ वफ़ा नहीं की

    मेरी पैंट के नीचे की ग़ायब खाल ख़तरे में पड़ गई

    मेरी जान जाने से बाल-बाल बची

    लेकिन मेरे लोग मारे गए

    मैंने अपने माथे पे भगोड़े का लेबल चस्पाँ कर लिया

    मैंने अपनी जान बचाने को दूसरी तरफ़ का रुख़ किया

    मैं बिस्मिल अज़ीमाबादी की तरफ़ भागा

    मैं बिहार पहुँचा

    मगर ‘एक बिहारी सौ पर भारी’ की कहावत भी

    मुझे बचाने में नाकाम रही

    मैं 1989 के भागलपुर में था

    मुझे फिर अपनी पैंट के नीचे की ग़ायब खाल की हिफ़ाज़त में

    अपने भाई की कटी गर्दन छोड़कर भागना पड़ा

    मैं ज़ोरों से भागा था

    जबकि उस समय रेलों में उतनी भीड़ भी नहीं थी

    मगर रेल ने भी मेरी ग़ायब खाल का वज़न

    मेरी जान का वज़न उठाने से इनकार कर दिया

    मैं ख़ुद अपनी नामौजूद खाल,

    अपनी पहचान,

    अपनी जान बचाकर भागते हुए भागता रहा

    1987 में मैं मेरठ पहुँचा

    मेरी पहचान के लिए

    पीएसी के जवानों ने

    हाशिमपुरा में

    [हाशिमपुरा—पैग़म्बर के दादा की जगह है, पर पैग़म्बर वहाँ नहीं पैदा हुए; वह दूर एक रेतीले देश में पैदा हुए…]

    मेरी पैंट उतार दी

    मेरी पहचान

    मेरी ग़ायब खाल के साथ ही

    दफ़्न कर दी गई

    सभी मारे गए मैं मज़हब को लेकर वहाँ से दौड़ आया

    मैं दौड़कर सूबों की सरहदें फलाँग गया

    मैं बम्बई में था

    जहाँ सबसे ज़्यादा पैसा होता है

    और पैसे के आगे इंसान भी अंधा होता है

    मगर ये पैसा मेरी पहचान को अंधा नहीं कर पाया

    1992 फिर एक बार मेरी पैंट मेरे कांधे पर पड़ी थी

    मेरी पहचान गोश्त के लोथड़े की तरह

    मेरे निचले हिस्से में

    आगे की तरफ़ लटकी हुई

    चाक़ुओं की ज़द में थी

    मुझे ख़रोंचें आईं

    मैं मेरे लोगों की हड्डियाँ कुत्तों को भभोड़ते हुए देखूँ

    उससे पहले ही मैंने अपनी पैंट अपनी आँखों पर ढकी

    और मैं वहाँ से चलता बना

    अपनी जान बच जाए तो काम बनता है

    बूढ़े शाइर

    वली दकनी को जब 2002 में दुबारा मारा गया

    मैं तब गुजरात में था

    मैं अपनी बेल्ट कसे

    पैंट को कमर से पकड़े

    गोधरा की सड़कों पर दौड़ रहा था

    मेरी माँ का पेट फाड़कर भी

    उन्होंने मेरी पहचान की

    अब मेरी पैंट की हालत एकदम ख़स्ता थी

    उस पर जगह-जगह लहू के छींटे

    और गोलियों के निशान बन गए थे

    यह 2013 था—

    मैं नई पैंट के बारे में सोच रहा था

    मैं ख़ान जहाँ के बाप मुज़फ़्फ़र ख़ाँ के नाम की रियासत में था

    जिसको मुज़फ़्फ़रनगर कहते हैं

    लेकिन तभी वहाँ कुछ लोगों को मेरी पैंट के बारे में ख़बर पड़ गई

    पैंट के साथ-साथ मेरी जान भी ख़तरे में थी

    मेरे लोगों ने जान देने से पहले

    नहर के पानी में आख़िरी हवा के बुलबुले छोड़े

    मैं अपनी पैंट को लेकर सरपट दौड़ा

    और छिपकर अपनी जान बचाई

    मैंने महीनों बाद अपने घरों की तरफ़ देखा तो पाया

    कि घर में लगा नलका ख़ून में लिथड़ी हुई हड्डियाँ देता है

    मैंने झुरझुरी ली

    और मैं अपनी जान बचाने के चक्कर में पड़ा

    और फिर से क़दमों पर पहिए बाँधे निकल पड़ा

    अब मैं लुटियन में था

    जहाँ मेरे मुल्क के नेता थे—

    मेरे मज़हब के मफ़ादपरस्त

    जिनको मैं समझता था कि वे मेरी जान बचाने में जुटे रहते हैं

    यह सन् 2020 था—

    मैं ज़ाफ़राबाद,

    सीलमपुर,

    करावलनगर…

    हर जगह छिपा

    तब भी मेरी पैंट मेरे हाथ में थी

    मेरी खाल वैसे ही मेरी टाँगों के बीच से ग़ायब थी

    मेरे लोगों को नाले की गहराई में

    मेरा मज़हब ले गया

    और जैसे खाल ग़ायब थी

    वैसे वे भी ग़ायब हो गए!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज़ुबैर सैफ़ी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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