कि टुकड़ों में है दुनिया

ki tukDon mein hai duniya

उत्कर्ष

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कि टुकड़ों में है दुनिया

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    बिसेसर आदमी ज़ात का है

    और इतनी ही है उसकी दुनिया

    कि हर फ़सल पकने पर

    उसकी नियति कर लेती है आत्महत्या

    टुकड़ों में बँटी दुनिया में से

    मिला उसे ख़ाली उजाड़ खेत

    जो हर साल बरसात में माथे भर जल में

    डूब जाता है भीतर तक।

    दुनिया उसके दुख का उपाय ढूँढ़ सकी

    ऐसा हो सका कि मुआवज़े की जगह

    बारह जने रातों-रात उछाह आए

    उसके खेत से सारा पानी या भर दें इतनी मिट्टी

    कि उसे समतल ज़मीन मिल जाए।

    उस दुनिया में मिट्टी की कमी थी

    कमी थी ही कोड़ने वाले की

    और दृश्य अभी तक वहीं है स्थित

    निचली सतह थोड़ी और है नीचे

    ऊपरी सतह पिछली बरसात में

    थोड़ी और ऊँची कर दी गई है

    दुनिया अब भी पसरी हुई है

    छोटे-छोटे इतने टुकड़ों में…

    समतल भूमि एक स्थापित भ्रम है।

    बिसेसर के घर चलें हम पाँच-सात

    उसके घर जीम लें समय का अदहन

    उतार लें हलक़ में साग-भात

    उसकी टूटी छत को मढ़ आएँ पुआल से

    देख आएँ उसकी मुस्कान से फूटती उजास को

    जान आएँ आदमी की ज़ात

    सब ज़ात का भ्रम अलाव में फूँक-ताप कर

    बिसेसर रोज़ फाँकता है चना-गुड़

    चबाता है नए धान का चूड़ा

    कभी चलें हम इकट्ठे जने पाँच-सात

    थोड़ा-थोड़ा आदमी हों आएँ।

    उसके गाँव में हर जाड़े गाती है सरसों

    हर साल ख़ुशहाल फ़सल का गीत

    उसके गाँव से कई कोस दूर शहर में है नदी

    जिसमें शहर छोड़ देता है अपनी मलिनता

    हर दिन बिना नागा किए

    गाँव की नहर में अभी तक मलिन नहीं दीखता है चेहरा

    हर साल गाँव में चूता है महुआ पेड़ से

    हर साल बिसेसर बीनता है कुछ महुआ

    जो सड़क पर गिरा

    कुछ जो किनारे निचले बाहे की गोद में।

    भाई बिसेसर! तुम ले आते हो मुझे

    उस बड़े से बड़ के पेड़ के पास

    हर बार

    और हर बार

    मैं जड़ों से पूछता हूँ सवाल

    कि दुनिया अभी तक

    इतनी उखड़ी-बिखरी क्यों है

    क्या नहीं हैं इस दुनिया में और

    बहुत और मेहनतकश कंधे जो

    हर दिन बना दें दुनिया को थोड़ा बराबर कल से

    थोड़ा जुड़ जाए अधिक कल से

    दुनिया का छिटका हुआ छोटा-छोटा हिस्सा।

    हम क्या हो पाए

    अगर थोड़ा आदमी हो पाए

    कि जब कल वक़्त पूछे हमसे ये सवाल

    कि क्या हम थे उस वारदात के वक़्त

    हम स्वतः चले जाएँ मूक मुद्रा में

    कह सके कि आदमी जब आदमी था

    मूकदर्शक भी थे आदमी के खोल में!

    कह सकें हम सो रहे थे

    हम जाग रहे थे

    रात-दिन की मर्यादा भूल कर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : उत्कर्ष
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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