सत्‍य

sat‍y

विष्णु खरे

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सत्‍य

विष्णु खरे

और अधिकविष्णु खरे

    जब हम सत्‍य को पुकारते हैं

    तब वह हमसे हटते जाता है

    जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से

    भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में

    सत्‍य शायद जानना चाहता है

    कि उनके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं

    कभी दिखता है सत्‍य

    और कभी ओझल हो जाता है

    और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं

    जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर

    कि ठहरिए स्‍वामी विदुर

    यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर

    वे नहीं ठिठकते

    यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्‍प पा जाते हैं

    तो एक दिन पता नहीं क्‍या सोचकर रुक ही जाता है सत्‍य

    लेकिन पलटकर खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्‍चयी

    अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ

    अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें

    और उसमें से उसी का हल्का-सा प्रकाश जैसा आकार

    समा जाता है हममें

    जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर

    पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को

    निर्निमेष देखा था अंतिम बार

    और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर

    मिल गया था युधिष्ठिर में

    सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम

    कि सत्‍य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला

    हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था

    हम तक आता हुआ

    वह हममें विलीन हुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया

    हम कह नहीं सकते

    तो हममें कोई स्‍फुरण हुआ और ही कोई ज्‍वर

    किंतु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं

    कैसे जानें कि सत्‍य का वह प्रतिबिंब हममें समाया या नहीं

    हमारी आत्‍मा में जो कभी-कभी दमक उठता है

    क्‍या वह उसी की छुअन है

    जैसे

    विदुर कहना चाहते तो वही बात कह सकते थे

    सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए

    युधिष्ठिर ने

    खांडवप्रस्‍थ से इंद्रप्रस्‍थ लौटते हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विष्णु खरे
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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