माधवी

madhawi

सुमन राजे

सुमन राजे

माधवी

सुमन राजे

और अधिकसुमन राजे

    तुम रच सकते हो

    नीली झील में

    अपनी परछाइयाँ

    हमें अपनी अंजुरी भर पानी में

    भरना लुढ़काना है

    प्यास का वर्त्तन

    झलकानी है सोनतरी

    और संध्या तारा।

    हम कथाएँ हैं

    महाकाव्य

    दृष्टांत और परिशिष्ट

    हस्तांतरित होने को

    पीढ़ी-दर-पीढ़ी।

    पुण्यश्च सार्वभौम

    राजा ययाति की कन्या

    पराक्रमी पाँच-पाँच

    भाइयों की बहना

    माधवी—मैं

    जिसका स्वयंवर

    रचा जा रहा था

    उस दिन

    जिस दिन

    गालव, आए थे तुम

    ययाति के याचक वन

    आठ सौ घोड़े

    माँगे थे गुरु

    तुम्हारे विश्वामित्र ने

    दक्षिणा अपनी शिक्षा

    या तुम्हारे हठ की।

    दानवीर राजा ययाति की कन्या

    पुरु और यदु की बहना

    जिसका स्वयंवर रचा जा रहा था

    उस दिन

    आस-पास के गाँव ही नहीं

    वन तक भर गए थे अभ्यागतों से

    दूर-दूर तक रंग-बिरंगी पताकाएँ

    लहराते इंद्रधनुष नीलाकाश में

    देव, मानव, ऋषि और राक्षस

    कौन नहीं था याचक माधवी का

    जिसके सौंदर्य की कथाएँ

    उपमाओं में तिरती थीं

    पाँच-पाँच वीर भाइयों की बहना

    अक्षय-यौवना—माधवी

    सुगंधि-सी लहराया करती दिगंतों में।

    कितनी-कितनी

    चिंता थी तुम्हें ययाति के यश की

    पिता,

    उस अक्षय स्वर्ग की

    जिसके लिए लुटाने पड़े

    बेशक

    सद्यः विवाहिता पुत्र का यौवन

    या पुत्री को

    रखनी पड़े दर-दर

    गिरवी अपनी कोख।

    स्वयंवर की प्रक्रियाएँ

    रोक दी गईं जहाँ की तहाँ

    संगीत की लहरियाँ

    ठिठक गईं अंतरिक्ष में

    पिता के पास नहीं थे

    आठ सौ श्यामकर्ण घोड़े

    इसीलिए

    हाँक दी गई मैं

    गालव, तुम्हारे साथ।

    ऋषि भी, कैसे-कैसे वरदान देते हैं

    राजर्षियों की सुविधा के लिए

    चक्रवर्ती जनना

    पर कुँआरी रहना

    मैं मेहनत-मजूरी भी करती

    तो भी नहीं चुक सकता था

    गालव, तुम्हारा गुरु-ऋण

    स्त्री के लिए इससे

    सहज

    साधन नहीं कोई!

    पुत्रों के पिताओं के नाम

    मेरे लिए संख्याएँ हैं

    संज्ञाएँ नहीं।

    निरबंसिया हर्यश्व

    जिसे मैं पहला कहती हूँ

    वृद्ध, अनागत के भय से

    हारा हुआ प्राणी

    वासना नहीं वात्सल्य से

    स्वीकारता था मुझको

    प्रहरों लाड़ लड़ाया करता

    मेरी मनुहारों को हथेली पर

    सहेजता कैसे बीत

    गया वर्ष एक जान

    ही नहीं सकी गालव

    भूल ही गई थी मैं

    तुम्हें

    ययाति

    विश्वामित्र

    और आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ों को।

    प्रसव की पीड़ा

    डूब गई मंगलाचारों

    तूर्यनाद और शंखध्वनियों में

    पौ फटी

    एक सर्वथा नई ध्वनि

    सृष्टि में शिशु का

    प्रथम रोदन

    बंद पलकें

    गुनगुना चंपक-गुच्छ

    क्वाँ-क्वाँ करता हुआ।

    उस रात

    स्वप्न-सा देखा

    टप-टप-टप

    टपा-टप

    सैकड़ों आवाज़ें

    चारों तरफ़ से

    उमड़ी चली रहीं

    आसमान छूतीं

    क्षीर सागर की लहरें

    बहरी दिशाएँ

    चाँदनी के ज्वार से

    श्यामकर्ण घोड़े

    रौंदते चले रहे हैं

    रहे हैं

    रौंदते

    मुझे और मेरे चंपक-गुच्छ को

    मैं चीख़ पड़ना चाहती हूँ

    नहीं सकती

    मेरे होंठ

    सिल दिए गए हैं

    सिलें रख दी गई हैं

    मुझ पर।

    पसीने से तर

    काँपती हथेली से

    टटोला सूने पार्श्व को

    चारों तरफ़ घोड़े

    सिर्फ़ घोड़े

    खाँदते

    हिनहिनाते

    दब गई होगी उनमें

    अधखुले कंठ की आवाज़ें

    आगे-आगे दौड़ते

    अगले पैरों से ज़मीन खोदते

    चिनगारियाँ उड़ाते

    अयाल हिलाते

    दो सौ श्यामकर्ण घोड़े

    पीछे-पीछे तुम

    गुरु-भक्त गालव

    तुम्हारे पीछे माधवी

    डोरी बँधी

    सद्यः जात गाय

    दोनों हाथों से

    दबाए वक्ष को।

    कैसी यात्रा है

    गालव यह

    जिसके पड़ाव

    ज़्यादा भयकारी हैं

    यात्रा से।

    राह चलते

    जब-तब

    पूछते थे तुम

    किसी को रोककर

    क्यों भइ

    यहाँ श्यामकर्ण घोड़े

    किसके पास हैं?

    वह ठिठकता-घूरता मुझको

    फिर कहता :

    “ओह!

    माधवी है ये

    दानवीर ययाति की कन्या!

    नहीं—

    यहाँ कहाँ

    श्यामकर्ण घोड़े!”

    वह दूसरा

    जिसे तुम दिवोदास कहते हो

    ख़ासा कलावंत था

    पारखी रूप

    और कलाओं का

    मुझे देख-देख

    जाने कितनी कविताएँ

    गुनगुनाया करता।

    पर

    मुझे

    उसके आतुर भुजबंध

    और हथेलियों में

    घोड़े के खुर

    चुभते थे

    जतन से सँवारे गए

    कुंचित केशों में

    लहरा जाती अयाल

    चारों तरफ़ घिरी रहती

    घोड़ों की गंध!

    ये दिन

    बहुत जल्दी नहीं बीते

    गालव

    नहीं भूली, नहीं भूल सकी

    एक क्षण को

    अधखुले कंठ का रोदन

    माँ के अस्तित्व को

    टटोलती हुई

    मुट्ठियाँ।

    पराई नदी में

    पराई नाव पर

    यात्रा कर रही हूँ मैं

    पराई शर्तों पर।

    बार-बार

    उन्हीं अंधी

    गलियों से गुज़रना

    बार-बार

    उन्हीं गूँगी प्रार्थनाओं को

    निचोड़ना।

    एक दिन

    अर्द्धरात्रि जब

    तीन शूल वाली

    बरछी चुभने लगी

    भेदने लगी उदर

    मैं जान गई

    यात्रा का एक और पड़ाव

    उन पीड़ाओं की रोचना

    किसके भाल पर सजेगी?

    सिर्फ़ यह जानने के लिए

    देखा मैंने तुम्हारे चक्रवर्ती को

    आँख भर

    टटोले उसके मुट्ठी बँधे हाथ

    कहीं उनमें खुर तो नहीं उगे?

    इससे पहले

    कि वे खटखटाएँ

    मैंने स्वयं ही खोल दिए द्वार

    एक-एक कर

    उतार दिए रत्न-अलंकार।

    तुम्हारा गणित

    बिल्कुल सही है गालव

    वर्ष शायद

    इसी का अभ्यास किया है तुमने?

    लो, मैं अक्षत-यौवना

    चिरकुमारी-माधवी

    प्रस्तुत हूँ

    दो सौ और

    श्यामकर्ण घोड़ों के साथ।

    उन्हीं अंधी गलियों से

    गुज़रना

    बार-बार।

    गूँगी प्रार्थनाओं को

    निचोड़ना

    बार-बार।

    तीसरे थे

    राजा उशीनर

    उनका वैभव

    सबसे मुखर

    पर्वतों-कंदराओं में

    कल-कल लहराती

    नदियों के किनारे

    चित्र-विचित्र वाटिकाओं

    और घने छतनार वनों में

    कहाँ-कहाँ घूमा किए हम

    आसमान की छाती पर

    उड़ते हुए विमानों से।

    कभी-कभी

    मैं भूल ही जाती थी

    अपनी नियति

    लगता हम

    प्रणयी-युगल हैं

    सचमुच

    किलोल करते परेवा से

    कमल-सरोवर में

    क्रीड़ा करती प्रहरों

    फिर थक कर सो जाती

    पर भीगी चिरैया-सी।

    कभी-कभी

    तुम्हारा चेहरा

    स्वप्न में दिखता था

    गालव

    फिर धीरे-धीरे

    घोड़े के मुँह में बदल जाता

    उसके चौड़े पीले दाँत

    हिनहिनाने की मुद्रा में

    और भी चौड़े हो जाते

    अक्सर

    मैं चीख़ उठती थी

    फिर काँप कर

    दोनों हाथों से

    थाम लेती

    अपना उदर।

    यदि होता संभव

    समय से पहले ही

    चीर कर रख देती

    गहन रखी कोख

    दे देती तुम्हें

    तुम्हारा दाय।

    आख़िर

    गणित पूरा हुआ गालव

    अक्षत-यौवना—माधवी

    प्रस्तुत है

    और दो सौ

    श्यामकर्ण घोड़ों के साथ।

    कब तब भटकोगे

    द्वार-द्वार और

    ऋणी शिष्य

    कह गए हैं अभी

    तुम्हारे मित्र गरुण

    धरती पर श्यामकर्ण घोड़े

    छह सौ ही शेष थे

    बेहतर है

    चलें इस नाटक के सूत्रधार

    के द्वार।

    जाने क्यों

    किस आस से

    देखा मैंने

    पिता के मित्र

    विश्वामित्र को

    एक क्षण के लिए

    गुज़र गया वात्याचक्र-सा

    स्मृति का

    कौंध गया वह पल

    जब मैं बचपन को

    घेरदार घघरिया में

    उछालती फिरती थी

    अक्सर, पिता के पास

    आते थे तुम्हारे गुरु

    गोद में जिनकी

    मैं नन्हें-नन्हें हाथों से

    खींचा करती थी दाढ़ी

    रुद्राक्ष-मालाएँ

    कुछ आगे को झुकी हुई

    नुकीली नाक!

    तीन-तीन

    चक्रवर्तियों की कुँआरी माँ को

    आँखों से पीते

    उँगलियों से टटोलते

    गालव, तुम्हारे परंतप गुरु ने

    यही तो कहा था

    पछताते-पछताते

    बेकार ही परिक्रमा की

    तुमने राजर्षियों की

    मुझे ही सौंप दी होती

    अछूती-गंगा-जल-गगरी

    मैं ही कर लेता

    संगम-स्नान

    चार चक्रवर्तियों का

    पिता होकर!

    आश्रम से बाहर

    आकाश पर चढ़ता

    यज्ञधूम

    कृष्ण अगरु

    वनौषधियों की गंध

    भीतर

    तुम्हारे आचार्य के

    तप्त उच्छ्वास!

    चारों तरफ़

    चौकड़ी भरते

    श्यामकर्ण घोड़े

    छह सौ

    श्यामकर्ण घोड़े।

    तो,

    गालव

    चार सालों में

    पूरी हुई

    चार युगों की

    यात्रा यह

    अब

    मैं रिक्ता

    खड़ी हुई

    बाबुल की

    देहरी पर।

    चार साल पहले

    माधवी के स्वयंवर के

    कदली-स्तंभ रचे गए थे

    यहाँ

    आम्रबौर बरसे थे

    चार साल पहले

    दानवीर ययाति की कन्या

    पाँच भाइयों की बहना

    माधवी रची थी

    वसंत-सी

    पिता

    कैसे नकारते तुम

    दान-स्तुतियों

    विरुदावलियों को

    फिर से

    स्वयंवर के

    ढोल बजवाए गए

    हरकारे दौड़े

    माधवी का स्वयंवर

    (जो टल गया था अचानक

    वजह सब जानते हैं

    अक्षय-यौवना—माधवी

    वरण करेगी अपना

    प्रिय!

    स्वयंवर तक तो

    रुक सकोगे

    गालव

    गुरु के ऋण से मुक्त

    दिव्याभिषेक से

    आप्यायित।

    दर्पण में

    निहारूँ अपना चेहरा

    या शृंगार करती सखियों के

    मुख पर खिंची हुई

    दबी-दबी मुस्कानें।

    पिता की आज्ञा से

    भाइयों ने

    वरमाल देकर हाथों में

    बिठा दिया रथ पर

    अनागत के लिए

    अप्रस्तुत माधवी को

    चार साल पहले

    इन्हीं हाथों से

    छीन ली गई थी वरमाला

    तब नहीं किसी ने पूछा था

    माधवी क्या कहती हो?

    आज फिर से

    थमा दी गई तो

    नहीं पूछा किसी ने

    माधवी क्या कहती हो?

    रथ

    चल दिया है

    परंतु

    यात्रा का बिंदु

    तय करेंगे

    विश्वामित्र

    पिता

    तुम

    गालव

    मैं वहीं तक जाऊँगी

    जहाँ तक मुझे जाना है।

    चारों तरफ़

    उत्कंठित राजाओं में

    देखा मैंने

    हर्यश्व अब

    नहीं थे निरबंसिया

    उनकी गोद में शोभित था

    तीन साल का बेटा

    गहरी निगाहें

    उतारते हुए मुझमें

    वे उसके कानों में

    फुसफुसा रहे थे कुछ।

    दिवोदास भी

    उपस्थित हैं

    दो वर्षीय बेटे के

    वैभव बटोर

    और उशीनर भी

    एक साला बच्चे को

    प्रदर्शित करते हुए

    आश्चर्य की बात नहीं

    गालव, तुम्हारे गुरु भी

    खड़े हैं दूर

    सद्यःजात शिशु को

    छिपाए मृगछाल में।

    मुझे नहीं मालूम

    शंख कब-कब बजा

    बजता रहा

    बंदीजन क्या-क्या

    गाते रहे

    किस-किसके लिए।

    अब और नहीं

    कई चक्कर

    लगा चुका है रथ

    पार्श्व में खड़े

    भाइयों के चेहरे

    सँवला गए हैं

    बजती है निस्तब्धता

    सभी ओर।

    दर्द के गुंजलक को

    सींक से कुरेदने का खेल

    मत खेलो बार-बार

    शायद कहीं उसमें

    नीचे फन भी हो।

    एक बन लाँघ

    दूजा बन लाँघा

    पार किए मैंने

    सातों बन।

    कोई डर नहीं है यहाँ

    हालाँकि बनराज विचरते हैं

    एंडाते हुए वक्ष

    लहराते हुए पुच्छ

    सिंहनी चाटती है

    छौनों को

    दूध पिलाते वक़्त।

    हरी-हरी विछली

    तीखी कचौंधी गंधवाली

    चबाती हूँ घास

    चारों पैरों से

    (पैर ही तो हैं ये)

    चौकड़ी भरती

    विचरती हूँ

    वनों में।

    गुनगुने कुनमुनाते

    मृगशावकों के

    घास से चिरे हुए

    कोमल मुखों को

    चाटती हूँ

    इनमें से किसी को

    दानवीर होता है

    चक्रवर्ती

    याज्ञिक

    दृष्टा।

    ऊँचे पर्वतों

    घने जंगलों के पीछे

    छिप जाएँगे जिस दिन

    कुलाँचें भरते हुए

    उनका शुल्क

    किसी को नहीं देना होगा।

    भूल चुकी हूँ मैं

    वह

    जिसे कहते हो तुम

    भाषा

    इसी आस में

    तलाशती हूँ

    घास का एक-एक

    तिनका

    शायद इनमें बन जाए कोई

    एरका!

    स्रोत :
    • पुस्तक : एरका (पृष्ठ 1)
    • रचनाकार : सुमन राजे
    • संस्करण : 1991

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए