वसंत को मैं आने नहीं दूँगी

wasant ko main aane nahin dungi

बाबुषा कोहली

बाबुषा कोहली

वसंत को मैं आने नहीं दूँगी

बाबुषा कोहली

और अधिकबाबुषा कोहली

    पवन के मंद थाप भर से खटक रहे कान कनेर-से खड़े

    पीली पात हुई जातीं अँखियाँ कोरों पर माघ के ओस-कण सँजोए

    उनका सबसे प्रिय तिल तुनक के कुप्पा हुआ गेंदे की भाँति

    पीली तितली का रूप धर स्वप्न उनके चीर देते रात्रि का सघन कालिम

    तिल-तिल सोख के रस उड़ रहते दूर देस

    प्राणवायु पर छूट लगा रंग स्वप्नपाख का

    तितली पकड़ने को आतुर हर श्वास

    किंतु सीमा के भीतर विवश

    नाभ से उठती लौ, नाभ में होती स्वाहा

    मानो उपवन के मध्य किसी अग्निकुंड के चहुँओर

    चलता हो ऋतुओं का यज्ञ

    अनवरत

    [ सखि!

    आज तो सोम हुआ

    देह के इस उपवन पर बृहस्पत की छाया क्यों?

    क्या? ऋतुराज आया?

    वे तो आए नहीं!

    वसंत फिर आया क्यों?]

    पीली पतंग हुए जाते वे दसों दिशाओं में उड़ते-लुटते

    माँझे-सा मन काट बैठता आप-ही तन

    लहू-लहू कानन

    [ टप... टप... टप...

    घोर पीड़ा...

    पीले के कोरस से उखड़ा हुआ सुर कोई

    द्रोह करता है...

    उपवन में रक्तवर्णी डहेलिया उगता है...]

    मेरे हास में मिले हैं पीलिया के लच्छन

    उनकी हँसी में औषध है

    टोना है

    मेरी चूनर में उधड़े हुए गोटे-सी सरसों की फलियाँ

    कंठ में अटक पड़ा राग

    तम गढ़ते आकाश भर में बिखरे मेरे केश

    सखि!

    भेज दे संदेस उनके देस

    जब तक वे स्वयं नहीं आएँगे लेकर नवेली चूनर पीली

    कंठ से मुक्त नहीं करेंगे बंधक रुत-रागिनी

    कसेंगे नहीं सूर्य की किरणों से मेरे केश

    वसंत को मैं आने नहीं दूँगी!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बाबुषा कोहली
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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