देखो, मुझे ग़लत न समझना

dekho, mujhe ghalat na samajhna

सीताकांत महापात्र

सीताकांत महापात्र

देखो, मुझे ग़लत न समझना

सीताकांत महापात्र

और अधिकसीताकांत महापात्र

    धूप गई

    अब तारे निकले

    फिर भी मैं बैठा रहा उस सुनसान

    अधडूबी अधटूटी नाव की मुँडेर पर

    जैसे मैं ख़ुद हूँ साँझ

    उसकी उदास शून्यता, उसका अकेलापन

    राह-दिशा-हीन एक रास्ता

    चारों ओर सघन अरण्य

    मैं नियम तोड़ता हूँ ज़बरन

    किस रुद्ध आवेग से

    पागल-सा निषिद्ध रेखा उलाँघ

    दुर्बल हाथ बढ़ाता हूँ

    हवा की ओर, आकाश की ओर

    अनभूले पानी के स्नेह की ओर

    इतने में पहुँच जाता हूँ मैं

    उसके दूसरे राज्य में

    जली-भुनी ध्वस्त-विध्वस्त

    अपने देश की सीमा-रेखा लाँघ

    जहाँ किसी के रोने पर

    दूसरे लोग मुँह फेरकर

    मन-मारे चारों ओर बैठते हैं

    अपना दुःख याद करते

    उसी में डूब जाते हैं

    पानी में हाथ फेरकर अनायास ही

    बह जाता हूँ समुद्र के अहेतुक आवेग से

    हवा को छूकर क्षण में ओले की तरह

    पिघल जाता हूँ उसी अकुंठित महक से

    अपने अनजाने ही खो जाता हूँ, छिप जाता हूँ

    आकाश की शून्य नीलिमा में

    देखो, मुझे ग़लत समझना

    मत सोचना राजकुमारी या

    परियों की कहानी मैं कह रहा हूँ

    तुम्हें बहलाने के लिए

    तुम्हारी यंत्रणा

    ज़रा शांत या कम करने के लिए

    यह तो मेरी आपबीती है

    कहा तो

    मैं एक वीरान रास्ता हूँ जंगल का

    हर काल में, हर दिन, ख़ुद ही दिशाहारा

    इससे अधिक भला मुझे

    और क्या कहना है, क्या करना है!

    युद्ध-ध्वस्त देश का अंतिम वासी हूँ

    कर ही क्या सकता हूँ किसी के लिए

    टूटे-फूटे शब्दों के आश्वासन पर टिका

    तीन रेखाओं के बीच सिमटा

    एक बिलबिलाता जीव हूँ मैं

    जो जीता है हवा, आकाश, नदी

    दया के भरोसे छुपाए आवेग अपना

    झूठ नहीं बोलूँगा

    अब भी मैं देखता हूँ सपने कभी-कभी

    मेरे सारे औजार और अक्षम शब्द और वाक्य

    आँसुओं, दुःख, यंत्रणाओं से मैले हैं, अस्वच्छ हैं

    शायद उनके मोह में सारे लोग, सारा विश्व

    अनायास ही जुड़ जाएँगे

    अपने स्वप्न और सत्ता से

    शायद एक घास उगेगी

    मेघहीन जली ज़मीन पर

    चिलचिलाती धूप और हवा में

    देखो तो सही

    कितना नीरव है यह लग्न

    मानों सब ने क़सम खा रखी हो

    मुँह खोलने की

    और अपना यह भाग्य, टूटे-फूटे शब्द लेकर

    कंठरुद्ध आवेग की बातें

    कहनी होंगी मुझे निर्जन रास्ते की

    कहनी होंगी बातें

    दुःख-यंत्रणा से भरे अभागे देश की

    इसीलिए मैं बैठता हूँ एकाकी यहाँ

    अभिशप्त पत्थर की मूर्ति-सा

    साँझ की इस एकांत लग्न में

    सीमांत की इस नदी में सुनसान

    अधडूबी-अधटूटी नाव की मुँडेर पर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 14)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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