नींद! आ!!

neend! aa!!

जयाप्रभा

जयाप्रभा

नींद! आ!!

जयाप्रभा

और अधिकजयाप्रभा

    नींद!

    मुझे छोड़ सभी नींद के सफ़र पर निकल चुके हैं

    जाने कितनी दूर चले गए हैं

    पलके काँप रही हैं उनकी

    सुदीर्घ स्वप्न-यात्रा है उनकी

    तुम्हारे अलावा और किसी की जगह नहीं है वहाँ

    मैं खोलकर देखना भी चाहूँ तो वहाँ कोई दरवाज़ा है ही नहीं

    शरीर को भूलने के बाद वे

    अपनी-अपनी मानस-यात्राओं पर होते हैं

    अपने-अपने उनके अंतरंग युद्ध होते हैं

    अँधेरे बिलों से गुज़रते हुए

    वेदना के जंगलों से होते हुए

    चाँदनी वाले आसमानों के बीच से टहलते हुए

    हर कोई अपने रास्ते चला जाता है

    वह निरा एकांत मार्ग है

    वह सारी सुख चेतनाओं का केंद्र हैं

    सभी नींद के सफ़र पर निकल चुके मुझे छोड़कर

    मेरी पलकों पर तो

    अभी तेरी हरी झंडी हिली नहीं

    नीलमणि जला नहीं

    तुम आई नहीं

    तुम्हारे मिलन के लिए सुलगती

    बुझने वाली यज्ञ-ज्वाला हूँ मैं! नींद! आ!!

    मेरे

    सपनों के सभी रास्ते अगम्य हैं

    मेरी छाया भी मेरा साथ नहीं देती

    फैला हुआ जटाधारी वटवृक्ष है मेरी विचार-प्रक्रिया जो

    मुझे सपनों में भी नहीं छोड़ती

    री नींद! प्रगाढ़ संभोग-सी!

    बादलों से ढँके आसमान में धुँधलाए चाँद की तरह मत

    दम घुटता है मेरा

    कारख़ानों के धुएँ की तरह मुझे मत घेर

    दम घुटता है मेरा

    झींगुर के गीत-सी मत आ! दम घुटता है मेरा!

    घेर ले मुझे धीमी हवा की तरह! कालिंदी की लहर की तरह

    रात को तीसरे पहर तक मेरा जागना

    पहरेदार को गवारा नहीं

    धीरे-धीरे सभी नींद के सफ़र पर निकल चुके हैं मुझे छोड़कर

    देखो तो छोटा बच्चा नींद में कैसे हँस पड़ता है

    स्कूल में बहुत शैतान है वह!

    क्या उसके सपनों को चॉकलेटों ने मिठास दी है

    क्या उसके सपने साथ पढ़ने वाली हिमबिंदु की हँसी उड़ाते हैं

    क्या तुम्हें कुछ पता है?

    देखो, जाने क्यों वह खिलखिलाकर हँस रहा है

    स्कूल में बहुत शैतान है वह

    उसके जैसी थोड़ी-सी ख़ुशी

    नींद! मुझे भी ला दे!

    उड़ते मोर के पंखों की तरह उड़ते हुए मेरी गोद में जा।

    इन फटी-पुरानी किताबों की यादें मुझे नहीं चाहिए

    नदी के तट पर सुख-सिकताओं वाला गीला फ़र्श चाहिए!

    नींद मेरे ऊपर बरस! मुझ पर मेहरबान हो!

    झूले में छोटी बच्ची की तरह मुझे अपनी मधुर कल्पना बना दे

    झुलाती जा

    तू माँ का प्रतिरूप है

    पढ़-पढ़कर आँखों की नसें थम गई हैं

    अब मुझे कोई जिज्ञासा नहीं

    थोड़ी देर मुझे सोने तो दे

    नींद! धीरे-धीरे मेरे भीतर से मेरी टहनी-सी समा जा!

    यह जागना कंजूस पति की तरह है

    जो पल भर के लिए भी आराम करने नहीं देता

    अब और नखरे मत दिखा तू

    इस रात का भी सवेरा होगा

    अब देर मत कर

    पलक झपकते ही आँखों में

    निर्बन्ध-शृंगार की तरह आ, जा

    अपनी बाँहों में मुझे घेर ले।

    नींद! मेरी मोहिनी जा।

    पहाड़ की आड़ में छिपे चाँद की तरह जा

    सर्प की तरह आहट किए बिना जा!

    मैं अपनी सुध खो बैठी हूँ

    नींद के सफ़र के लिए

    इन दिनों... इस संसार में

    कितना भी काम करूँ नाकाफ़ी लगता है...

    थक गई हूँ

    अनजाने या अचानक बुला ले मुझे!

    चुपचाप घेरते हुए चाँदी के लेपन-सी! नींद, जा!

    धुआँ-धुआँ तपी देह शीतल कर

    मोहन राग में

    बादल के टुकड़े के बेड़ों पर

    मुझे उठा ले चल! अरी नींद! जा!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 62)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवयित्री के साथ पी.वी नरसा रेड्डी एवं देवीप्रसाद मित्र
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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