तू रहे आकाश को ही देखते

tu rahe akash ko hi dekhte

शंकर शैलेंद्र

शंकर शैलेंद्र

तू रहे आकाश को ही देखते

शंकर शैलेंद्र

और अधिकशंकर शैलेंद्र

    ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई

    एक नई पहचान बनके मुस्कुराई

    तुम रहे आकाश को ही देखते।

    जब समझ पाए तुम उसका इशारा

    नाम लेकर भी तुम्हें उसने पुकारा

    क्या मिला क्या तुम गँवाते रहे हो

    पूछ देखो जानता है दिल तुम्हारा

    प्रीत प्यासी जान बनके छटपटाई

    दूर की एक तान बनके पास आई

    तुम रहे आकाश को ही देखते!

    बात मानो अब धरा की ओर देखो

    आदमी के बाज़ुओं का ज़ोर देखो

    कट रहे पर्वत समंदर पट रहे हैं

    आज के निर्माण की झकझोर देखो

    ज़िंदगी तूफ़ान बनके तिलमिलाई

    तुम रहे आकाश को ही देखते।

    व्यर्थ ये आदर्श ये दर्शन तुम्हारे

    प्यास में क्यों जाएँ हम सागर किनारे

    क्यों हम भागीरथी के गीत गाएँ

    क्यों श्रम सिरजे नए मंदिर हमारे

    मौत टूटा बान बनके थरथराई

    लाज के मारे मरी कुछ कर पाई

    तुम रहे आकाश को ही देखते।

    कुछ ये कहते हैं कि अब क्यों हो सवेरा

    पर करूँ क्या ढल रहा है ख़ुद अँधेरा

    मैं किसी धनवान का मुंशी नहीं हूँ

    लिख चला जो कह रहा है प्राण मेरा

    ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई

    एक नई पहचान बनके मुस्कुराई

    तुम रहे आकाश को ही देखते।

    कल की बातें कल के सपने भूल जाओ

    ज़िंदगी की भीड़ से काँधे मिलाओ

    गा रहे हैं चाँद-सूरज और तारे

    तुम भी आओ और मेरे साथ गाओ

    ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई

    एक नई पहचान बनके मुस्कुराई

    तुम रहे आकाश को ही देखते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अंदर की आग (पृष्ठ 54)
    • संपादक : रमा भारती
    • रचनाकार : शंकर शैलेंद्र
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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