समुद्र : चार कविताएँ

samudr ha chaar kawitayen

वंशी माहेश्वरी

वंशी माहेश्वरी

समुद्र : चार कविताएँ

वंशी माहेश्वरी

और अधिकवंशी माहेश्वरी

     

    एक

    समुद्र
    तुम्हारी ओर मेरी खिड़कियाँ खुलती हैं
    खिड़कियों के बाहर
    उसी तरह संपूर्ण हो तुम
    जिस तरह खिड़कियों के भीतर
    निश्छल! निमग्न!

    समुद्र!
    मेरे इंतज़ार की धूप में
    तुम्हारा आकाश तप रहा है
    तुम्हारे चमकीले रेतीले विस्तार में
    कितने ही पदचिह्नों की गाथाएँ छिपी होती हैं
    तुम्हारी काँपती पल्लरों में
    डूब जाते हैं गाथाओं के मर्म।

    समुद्र!
    कितनी ही सदियाँ
    तुम में अपना इतिहास रचकर
    खंडहर हो चुकी हैं
    तुम्हारे संस्पर्श
    मुझे स्मृतियों के द्वीप में छोड़ जाते हैं

    समुद्र!
    मैं लौटकर भी लौट नहीं पाता तुम में।

     

    दो

    समुद्र!
    कितनी ही यात्राएँ
    यात्रा करती हैं मुझ में
    ऐकांतिक मन के साथ आया हूँ तुम्हारे पास
    यात्राओं के बाहर।

    समुद्र !
    कितनी ही बार
    बिना छुए, बिना देखे, बिना पाए,
    तुम अपनी दुनिया को
    रूपांतरित करते रहे हो मुझ में।

    समुद्र!
    मैं नहीं जानता जानना
    मैं नहीं पाता पाना
    सिर्फ़ तुम्हारी आत्मा में ओतप्रोत
    आलोड़ित होता हूँ मैं।

    समुद्र!
    सहस्राब्दियों से
    तुम्हारे चित्र
    हर बार अधूरे छूट जाते हैं जीवन में
    उन चित्रों में
    जीवन के संपूर्ण रंगों के साथ
    मैं चित्रित होता रहता हूँ।

    समुद्र!
    मैं समग्र चित्र की विकलता में
    अधूरा हूँ तुम में।

     

    तीन

    समुद्र!
    तुम देते रहे हो मुझे निरंतर
    इच्छाओं के समुद्र
    तुम्हारी संवेदित पल्लरें
    मेरे किनारों को बहाती ले जाती हैं अपने साथ
    फिर छोड़ जाती हैं।

    बारंबार
    उसका आना-जाना, जाना-आना होता है मुझ में।

    समुद्र!
    तुम्हारे साथ चलते-चलते मैं
    सीखता रहा हूँ चलना
    अनंत तक फैला तुम्हारा गरजता मौन
    मेरे फ़ासलों में समा जाता है
    तुम्हारा सुदीर्घ मन
    मुझ में उथल-पुथल होता निर्बंध कर जाता है मुझे।

    समुद्र!
    तुम्हारे साथ
    व्यतीत क्षणों की साँसों में
    धड़कता रहता है मेरा समय
    मैं तुम्हारे अंतर्मन का खोया द्वीप हूँ।

    समुद्र!
    मुझ में तुम्हारी शांत लय के गीत गूँजते हैं
    मैं उस राग में डूब जाना चाहता हूँ
    अफ़सोस! मैं डूबकर भी
    डूब नहीं पाता तुम में।

    समुद्र!
    तुम फिर उमड़-घुमड़ कर, लौट आओ मुझ में।

     

    चार

    समुद्र!
    अभी रात का अंतिम पहर
    तुम में जाग रहा है
    उसकी आँखों में हल्की-सी चमक शेष है
    उसकी सँवलाई देह
    शुभ्र होने के लिए धीर-अधीर है।

    समुद्र!
    अपने में डूबे सूर्य को तुम
    पृथ्वी पर आने दो
    सुहावनी सुबह
    तुम पर बिछी अपनी रक्तिम चादर समेटने लगी है।

    समुद्र!
    सपनों से बाहर होता तुम्हारा सूर्योदय
    आहिस्ते-आहिस्ते
    जीवन में चुनौतियों की रश्मियाँ फैलाता
    फिर लौट आता है तुम में।

    समुद्र !
    तुम में अंतहीन कामनाएँ
    उदित और अस्त होती रहती हैं
    तुम में ओर-छोर तक फैली संभावनाएँ
    कोशिशों की गहराई में डूब जाती हैं
    तुम में यात्रा और प्रस्थान के
    अछोर सम्मोहन
    विसर्जित होते रहते हैं।

    तुम में सृष्टि अपनी थकान उतारती
    तुम में विश्राम पाती है।

    समुद्र!
    तुम मुझ में अपने तटबंध खोल दो।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वंशी माहेश्वरी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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