मैं बांग्लादेश जाना चाहती हूँ

main bangladesh jana chahti hoon

निर्मला गर्ग

निर्मला गर्ग

मैं बांग्लादेश जाना चाहती हूँ

निर्मला गर्ग

और अधिकनिर्मला गर्ग

    विदेश जाने का मौक़ा मिला मुझे तो मैं बांग्लादेश जाना चाहूँगी

    चौंक रहे हैं आप?

    यह कैसा अचंभा

    मैं अमेरिका जाना क्यों नहीं चाहती

    अमेरिका में है क्या?

    एक अदद व्हाइट हॉउस और एक अदद ‘बुश’

    जिसमें उलझकर देश के देश लहूलुहान हुए

    नफ़रत और लालच के नए शास्त्र गढ़े गए

    अमेरिका खड़ा ही है बर्बरता की नींव पर

    पृथ्वी के उस छोर पर अब भी सुनी जा सकती हैं

    रेड इंडियनों की चीख़ें...

    वहाँ ‘कैटरीना’ है अश्वेतों की बस्तियाँ उजाड़ता

    गोरों के बंद दरवाज़ों से टकराकर

    बिखर जाता है उनका हाहाकार

    बुश निर्लिप्त भाव से देखते हैं आँकड़े-मृत्यु के

    मनुष्य के धनपशु में तब्दील करता है अमेरिका

    सरोकारों के सारे तंतु काटकर

    सिखाता है सिर्फ़ अपने लिए जीना

    बांग्लादेश जाना चाहती हूँ मैं

    एशियाई मुल्कों की तरह वहाँ भी लोग मानवता के पक्षधर हैं

    साम्राज्यवादी लिप्सा के नहीं

    वहाँ मुहम्मद युनूस है

    उससे हाथ मिलाना चाहती हूँ

    उसके बैंक को ‘सलाम वालेकुम’ कहना चाहती हूँ

    कहना चाहती हूँ—“ओ ग्रामीण बैंक, अल्लाह से बड़े हो तुम”

    तुम समझ सके ग्रामीणों का दारुण दु:ख

    सूदख़ोरों के चंगुल से निकाला उन्हें

    मुहम्मद युनूस! नीरस आँकड़ों से निकालकर अर्थशास्त्र को

    तुमने दिया उसे मानवीय चेहरा

    कितने ही देश चले इस नए रास्ते पर

    हमारे प्रधानमंत्री भी तुम्हारे साथ पढ़ रहे हैं

    पर उनका अर्थशास्त्र इतना अलग क्यों है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता (पृष्ठ 49)
    • रचनाकार : निर्मला गर्ग
    • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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