फ़हमीदा आपा के नाम

fahmida aapa ke nam

सत्येंद्र कुमार

सत्येंद्र कुमार

फ़हमीदा आपा के नाम

सत्येंद्र कुमार

और अधिकसत्येंद्र कुमार

     

    पाकिस्तान की मशहूर शायरा फ़हमीदा रियाज़ के लिए

    फ़हमीदा आपा!
    जबकि वे रौंद रहे हैं पूरी पृथ्वी
    कुचल रहे हैं घास के मैदान
    तब मैं वहीं घास की जड़ों के पास बैठकर
    लिख रहा हूँ तुम्हें यह ख़त
    तुम्हें जब मिलेगा यह ख़त
    तब उसके अक्षर तुम्हें टेढ़े-मेढ़े दिखेंगे 
    उनके पाँवों से कुचल जाते हैं मेरे हाथ
    टूट जाती है क़लम की नोंक
    तुम काग़ज़ पर जो कुछ ख़ून के धब्बे देखोगी
    वह उसी कुचले हाथ से बहता ख़ून है—
    जो स्याही से मिल गया है

    मैं जानता हूँ 
    बिखरे अक्षरों और गड्मड् हो गए भावों को तुम
    पढ़ ही लोगी जोड़-तोड़कर
    यह तो तुम्हारी ही भाषा है—
    तुम्हारे ही शब्द हैं
    जिन्हें मैं यहाँ दुहरा रहा हूँ
    घास की जड़ों के पास बैठकर
    हमारे दोस्त कहते हैं
    कुछ नहीं होगा हमारे कहने से
    वह भी यूँ ही पोंछ दिया जाएगा
    फ़हमीदा आपा!
    मर्माहत शब्द कहाँ जाएँगे फिर?
    क्या कलशों में स्थान पाएँगे?
    या कि उसके नीचे रखी मिट्टी में
    दूब बनकर उगेंगे?
    क्या वे बादशाहों के मुकुट पर शोभेंगे?
    या कि साधु-संतों के मंत्रों में उच्चरित होंगे?

    क्या हमारे शब्द उनकी चमकती तलवार की धार बनेंगे
    और दुश्मनों के ख़ून को चाटेंगे?
    या कि उनके नारों में बदलकर जयगान करेंगे?

    मैं जानता हूँ कि वे मुझे
    इस ख़त को लिखने के कारण
    पागल हाथियों के पाँवों के नीचे फेंक देंगे
    वे मेरी ज़बान और मेरे हाथ काट देंगे
    क्योंकि उनकी नज़र में मैंने बहुत बड़ा गुनाह किया है—
    मैंने अपनी फ़हमीदा आपा को नहीं
    एक ‘मुसलमानिन' को यह ख़त लिखा है—
    राष्ट्रद्रोह का काम किया है—
    वे मेरी चिंदियाँ बिखेर देंगे 
    फिर भी मैं लिख रहा हूँ तुम्हें यह ख़त
    कि स्याह सन्नाटा फैल रहा है हमारी धरती पर
    पागलों की टोली 
    उजाड़ रहे हैं बच्चों के घरौंदे
    पतंगों के बिना सूना है आसमान
    आख़िरी परिंदा भी उड़ने की तैयारी में है
    उस रिक्तता को वे भर रहे हैं
    अपने पाशविक ठहाकों से
    साधु-संतों की पालकी गढ़ रहे हैं बढ़ई
    उसे ढोने वाले लोग क़तारों में खड़े हैं
    कि पहले कौन दे अपना कंधा
    उनकी पालकी को?
    राष्ट्रकवियों की जमात
    गाए जा रहे हैं प्रशस्ति गान
    प्रेतों ने शुरू कर दिया है गाना
    आबाद होने लगे हैं ऋषियों के आश्रम
    फ़सलों के गीत बंद हैं गाँवों में
    खेतों पर लगी है नई बंदिशें

    धरती से छूट रहा है किसानी का रिश्ता
    मज़दूर ख़ाली हाथ लौट रहे हैं कारख़ानों से
    हमारे रिश्तों को दी जा रही है नई परिभाषा
    ‘उनकी’ भाषा के बाहर का हर कोई है गद्दार
    वे गद्दारों को डाल देंगे—बंगाल की खाड़ी में
    या बनाएँगे अपने गुरु 'हिटलर' की तरह
    कई-कई कंसंट्रेशन कैंप

    फ़हमीदा आपा!
    मुल्ला-मौलवियों की महफ़िलें आबाद हैं यहाँ
    तस्लीमा के पुरखे कभी भागे थे हिंदुस्तान से
    फिर भागे पाकिस्तान से
    और अब तस्लीमा भगाई जा रही है बंगलादेश से
    उसका जीना शुभ नहीं है इनके लिए
    उसने भी ढूँढ़ ली है
    घास की जड़ों में अपनी जगह
    वह वहीं से ललकराती है हुक्मरानों को

    फ़हमीदा आपा!
    मैंने तुम्हारे शब्दों को
    बो दिया है उस मिट्टी में
    जहाँ-जहाँ वे रौंदते हैं धरती को
    एक दिन रौंदी हुई धरती का सीना
    चीरकर बाहर निकलेंगे वे शब्द 
    और हुँकार बनकर खड़े हो जाएँगे उनके सामने

    फ़हमीदा आपा!
    मैं नहीं जानता
    यह ख़त तुम तक पहुँचेगा या नहीं
    लेकिन फिर भी लिख रहा हूँ तुम्हें यह ख़त
    कि हमने—
    अपने-अपने आकाश के नीचे गढ़ा है अपना सपना
    अपनी मिट्टी में बिखेरी है हमने ख़ुशबू

    इस मिट्टी के नीचे
    बहते हैं हमारे पसीने, ख़ून और आँसू
    हमें रहना है अपनी ही ज़मीन पर 
    अपनी स्मृतियों,
    अपनी पराजय और अपनी जीत के साथ
    कुचल देना है उनकी भाषा का छद्म

    फ़हमीदा आपा!
    तुम लड़ती रहो अपने लोगों के लिए
    एक दिन हम घेर लेंगे पूरी पृथ्वी को
    और तब पूछेगे उनसे
    कि बताओ बदज़ातों,
    तुम्हें कौन-से सागर में डुबोया जाए?

    स्रोत :
    • पुस्तक : हे गार्गी (पृष्ठ 39)
    • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
    • प्रकाशन : रश्मि प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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