बाँसुरी

bansuri

सीताकांत महापात्र

और अधिकसीताकांत महापात्र

    हाथी

    मेरे दुःख का कमलवन अछूता रह गया

    कमलवन शोभित था मेरे भीतर

    गढ़ा जाकर अपनी बाँसुरी के सांध्य-स्वर में

    एक-एक कमल खिलता जा रहा था

    स्वरलिपि खोदते पंक और पानी में

    और वसंत अस्त हो गया

    बेचारे की फटी कमीज़ में

    दिन डूब गया टुपू कंकड़-सा

    महाकाल-सा अंधा

    उसकी पुतलियों की झील में

    बाँसुरी फूल बनकर खिलती है

    पत्ता बनकर झर जाती है,

    स्वर में आकाश दिखता है

    दिल को छू जानेवाली प्रशांति का निर्लिप्त आकाश

    जिसका नीला चँदोवा डोलता है

    झिलमिलाते शत-शत तारों के फूल से

    मैं भी वही बाँसुरी औऱ चित्रोत्पला नदी हूँ

    स्वर जो एकांत में

    ढूँढ़ता है अपना परिचय

    पलटकर देखता है

    नदी का बाँध और बाँस-वन

    कोहरे की परछाई तले

    तरंग भरी आँखों से

    चित्रोत्पला एकटक ताकती रहती है

    सिर्फ़ सुदूर समुद्र को

    अनेक गाँव घर हैं मोड़ के अंत में

    वहाँ अब महाशून्य टकराता है तट की रेत से

    अपनी हताश नमकीन प्यास लिए

    मैं भला और क्या देखता हूँ?

    गिद्ध, सियार खो गए हैं क्रमशः अँधेरे में

    हाथों में मशाल और झल्ली लिए

    कई लोग पानी छपछपाते चले जाते हैं

    और समा जाते हैं दूर कोहरे में

    बस थोड़ा-थोड़ा सुनाई देता रहता है

    पानी का छपर-छपर

    फटी कथरी ओढ़कर

    फिर भी ख़ुद को तलाशते रहते हैं

    गूँगी रेत और निर्जन स्वर

    बाँसुरी लहरें रचती है

    और मोड़ लेती है अपना मुँह

    आकाश की ओर

    बाँसुरी मित्रता करती है

    सुनसान घाट के किनारे जाने कब से डूबी

    सूनी नाव से

    उसके बाद मिट्टी पकड़कर

    बाँघ पर चढ़ती है

    और बाँस-वन में जाकर

    धप्प से बुझ जाती है

    जहाँ धुँधला अँधेरा, जगमगाते जुगनू

    खड़खड़ाते सूखे पत्ते और

    उल्लू की तीखी आवाज़

    एक साथ गड्डमड्ड हो जाते हैं

    बाँस काटने की कुल्हाड़ी की ठक-ठक और

    शववाहकों के ‘राम नाम सत्य है’ के साथ

    नदी और अंधा बालक

    पास-पास बैठे रहते हैं

    एक जोड़ी फटे जूते जूता-स्टैंड में

    हाथी राह बदलकर

    पुल पार कर चले जाते हैं

    कमल-वन चकमक शोभता है

    रात के अँधेरे में।

    (एक पुराने प्रार्थना-गीत में प्रभु जगन्नाथ को ‘मत्त हाथी’ संबोधित करके अपने समस्त दुःख रूपी कमलवन को तहस-नहस करने के लिए पुकारा जाता है।)

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 91)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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