शाप के सहारे

shap ke sahare

कुलदीप कुमार

कुलदीप कुमार

शाप के सहारे

कुलदीप कुमार

और अधिककुलदीप कुमार

    एक शाप के सहारे जीते हुए

    कैसा लगता है?

    कैसा लगता है

    जब रात नींद की आँखों में

    कीलें ठोंक कर चली जाती है

    और हम छटपटा तक नहीं पाते

    बस घबराकर कूद पड़ते हैं

    उजाले से भरे एक कुएँ में

    आँखों में अधजली चिताएँ ढोते हुए

    हम बार-बार कोशिश करते हैं

    किसी दूसरे जन्म में जाने की

    (रहोगे तुम यहीं अष्टावक्र!

    ढोओगे एक ही जन्म में

    आठ जन्मों की पीड़ा

    तड़पते रहोगे जब तक शेष है

    तुम्हारे अंगों में लेश मात्र भी जुंबिश

    नहीं ले सकोगे अब फिर कोई जन्म)

    जिस जगह हम बुत बने खड़े हैं

    एकदम वहीं पत्थरों पर गिरकर रोशनी टूटती है

    हर शाम बेहरकत जीभ पर

    कबूतर पंख फड़फड़ाते हैं

    और हम समझते हैं

    कि शब्द तड़प रहे हैं

    वक़्त की तरह ही

    हम भी टुकड़ा-टुकड़ा होकर चलते हैं

    तलुओं से रेत पर

    आकृतियाँ बनाते हुए

    किसी तरह दिन-दिन करके

    बीतते जाते हैं साल पर साल

    छीजते जाते हैं

    आत्मा पर के वस्त्र

    डूबते जाते हैं हम

    एक विलाप करती झील के अँधेरे में

    और

    रोज़ सुबह उठने पर सोचते हैं

    कैसे कटेगा यह जनम

    इस शाप के सहारे

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुलदीप कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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