जोशीमठ

joshimath

सौम्य मालवीय

सौम्य मालवीय

जोशीमठ

सौम्य मालवीय

और अधिकसौम्य मालवीय

    आदि-शंकराचार्य ने महातप के बाद

    जब खोले होंगे चक्षु

    वेदांत के अलावा देखा होगा एक और भी सत्य

    वह ये कि जोशीमठ डूबेगा...

    ज़रूर डूबेगा जोशीमठ!

    पर ये बताया नहीं किसी को

    इस दूसरे सत्य में शिष्यत्व की सम्भावना नहीं थी क्या...

    ना कोई विजयीभाव

    फिर शायद बौद्ध मतावलंबियों को भी

    इस दूसरे सत्य की भनक रही हो

    गुरु परलोक सिधार गए

    अपने साथ वह दूसरा सत्य लेकर

    कि जोशीमठ डूबेगा...उनके आप्त वचनों में

    नहीं था उन दोपहरियों का निदाघ

    जिनमें डायनामाइट की थाप पर

    जोशीमठ की डूब होगी...

    उन रात्रियों की वेदना जब

    भूमि पर दरारें कड़केंगी और

    बींध जाएंगी बस्तियों को

    पर सत्य तो था ही

    आदि प्रवर्तक ने नहीं कहा तो क्या

    सभ्यता विकसित हुई

    गुरु के उस सत्य से ओट कर के

    जिसे उन्होंने देखा था...पर कहा नहीं था...

    अधूरे सत्य ने पंथों को जन्म दिया

    पंथ मठों में पथरा गए

    मठों पर बिराजे मठाधीश

    मठाधीशों के आगे बिछ गए अनुयायी

    और अनुयायियों ने

    गुरु की झिझक पर नगर-तीर्थ बना दिए!

    वह भय जो कुछ वेदांती-कुछ बौद्ध दोनों था

    कि जोशीमठ डूबेगा...

    डूब गया एक मूर्ख आत्मविश्वास के तले

    धर्मों ने इस तरह समय-समय पर अपने हिस्से के सत्य तो कहे

    पर अपनी आशंकाएं छुपा ले गए

    धर्म बिना संदेह के महज़ आस्था था

    जोशीमठ आस्था की राह में पड़ने वाला एक पड़ाव

    फिर भी सत्य था, तो उसे गुरु अपने साथ तो नहीं ले जा सकते थे

    सो उसकी पुड़िया बनाकर

    एक भोटिया तिजारती के झोले में डाल दिया!

    भोटिया से उसे

    एक तिब्बती लामा ने कोई दुर्लभ जड़ी-बूटी जानकर कर ख़रीदा

    और अपने देस ले गया

    जब उसके मठ के अन्य लामाओं ने

    उस दुर्लभ सी दिख रही चीज़ को सूंघा

    उन्हें सुनाई पड़ा

    कि कारकोरम, पामीर और किलियाँ के पहाड़ भी डूबेंगे!

    और वे सन्नाटा खा गए

    उन लामाओं ने तुरत उस सत्य को

    आचार्य रिंपोछे यानी गुरु पद्मसंभव के चरणों पर

    छोड़ आने के लिए कहा

    यह सत्य की जोशीमठ डूबेगा

    उन्हें एक नए संघात के साथ प्रतिध्वनित हुआ था

    जैसे तरंग कटोरी से टंकृत होता हुआ

    जोशीमठ डुबोया जाएगा!!

    जोशीमठ डुबोया जाएगा!!

    ठीक उस वक़्त जब पद्मसंभव के चरणों पर

    उस सत्य का चढ़ावा हो रहा था

    रेवाल-सर तीरे बैठे थे भाऊ चन्द्रकीर्ति जाधव

    बाबा साहब के बुद्ध को ढूंढते-ढूंढते महायान की गलियों में

    कहीं खो से गए थे

    लम्बे समय तक

    घनघोर उपेक्षाएं झेलने के बाद

    अब घर जाने को थे...

    जाते-जाते सोचा भाऊ चन्द्रकीर्ति जाधव ने

    क्यूँ ना गुरु के पास से कोई स्मृति-चिह्न लेता चलूँ

    कोई चिन्हानी-कोई प्रतीक...

    वो धर्म जो आश्रय ना दे सका...ना अपनेपन का भाव

    पर कहीं ना कहीं प्रेरणा तो रहा ही है

    उनकी अपनी...उनके भीम की

    उन्होंने पद्मसंभव के चरणों से

    पुड़िया में फड़फड़ाता वो सत्य उठाया

    और महायान को सलाम ठोंक कर

    नवयान के पास विदर्भ लौट पड़े

    खचाखच भरी रेलगाड़ी में

    खिड़की से बाहर देख रहे

    भाऊ चन्द्रकीर्ति जाधव ने धुंआई और मोटे पेण्ट से पुती

    लोहे की छड़ों के पार जब विदर्भ की दाहती धरती को देखा

    उनके आँखों में आँसू नहीं आए,

    ताप वलयें उठीं!

    भट्टे से निकली ईंट जैसा उनका तमतमाता मुख

    उस अस्ताचलगामी से मुख़ातिब था

    तभी उन्हें अपनी काली बण्डी की बाईं जेब में

    कुछ महसूस हुआ

    हाँ, वह पुड़िया जो वे पद्मसंभव के चरणों से उठा लाए थे

    उनके खुरदुरे स्पर्श से पुड़िया कुछ सिहरी

    और उसने वह सत्य बक दिया जो उसके

    अंदर गुड़मुड़ाया हुआ सो रहा था

    सत्य क्या था

    यह क्षिति पावक में भस्म होगी!

    विदर्भ की धरती फटेगी!

    पर यह कोई खुलासा नहीं था

    भाऊ चन्द्रकीर्ति जाधव के लिए

    बल्कि उन्हें तो इस सत्य के पीछे का सत्य

    कि यह धरणी हव्य बनेगी!!

    पहले से पता था...

    उन्होंने उस पुड़िया को

    हवा में सिरा दिया...

    सिरा क्या दिया जैसे लुटा दिया

    यह एक कोरा सत्य था उनके लिए

    गुरु पद्मसंभव से उन्हें

    इससे ज़्यादा चाहिए था कुछ...

    ओंगोल के तटवर्ती शहर से आए

    विदर्भ की तृषित भूमि पर भटक रहे

    अबू-असलम के नमक से पपरियाए माथे पर

    वह पुड़िया खुलकर यूँ चिपक गई

    जैसे कोई इश्तेहार हो!

    ट्रेन की मथित-उत्थित हवा में चक्कर खाती

    वह पुड़िया बलखाती

    भाऊ चन्द्रकीर्ति जाधव की

    प्राचीन उँगलियों से निकल कर

    अबू असलम की पेशानी पर चस्पाँ हो गई थी!

    वक़्त बीता कि सपना था

    पर नमक की लकीरों से बात करते उस सत्य ने

    अबू-असलम की पेशानी से कहा

    मछलीपत्तनम-विशाखापत्तनम में भूचालती लहरें

    किनारे लील जाएंगी!

    और इतना ही नहीं

    गड़गड़ाते-ट्रॉलर और समुद्र का सीना दलते जहाज़

    सोख लेंगे वो मीन सम्पदा जिसके

    मुस्तफ़ीद और सरपरस्त दोनों

    अबू-असलम के दादा-परदादा रहे आए हैं!!

    यह सुनना ना था, कि अबू-असलम को

    अमीना की बात याद हो आई

    जो सदा कहा करती थी

    ये मछलियाँ, पसलियाँ हैं लहरों की

    जैसे-जैसे कम होंगी

    ख़त्म होता जाएगा लहरों का रसाव

    बेकाबू लहरें खदेड़ देंगी हमें

    मुल्क़ के भीतर...और भीतर

    जहाँ खुद मछलियाँ होंगे हम...तड़पती-भटकती, अंतर्धाराओं से

    सतह पर आकर उथलाई हुई मछलियाँ!

    अबू-असलम, नहीं, अबू-असलम कंस्ट्रक्शन मज़दूर ने

    एक तटीय आह भरी

    और पसीने में गल रही उस पुड़िया को

    ज़मीन पर गिरा दिया

    ज़मीन पर धीमे-धीमे उतरती उस पुड़िया के पार्श्व में

    उसने देखी अपनी पिंडलियाँ, जिनसे वह मछलियाँ गायब थीं

    जिनको उसकी बीवी ने जी-जान से प्यार किया था

    थी तो बस चूने-गारे की

    एक धूमिल सी लार

    और वह टीसता हुआ सत्य,

    'जोशीमठ डूबेगा' की एक और पराध्वनिक कोर

    टूटेंगे कगार!

    साहिल आत्मघात करेगा!!

    सुना है वह पुड़िया

    फिर सुंदरबन की बाघ-विधवाओं तक पहुँची

    नेपाल की एक विकरालती झील के किनारे किसी दमाईं को मिली

    कानपुर में मोहनलाल निषाद की

    बिवाई पर चिपक गई

    जब वे कीचड़-कहल गंगा से अपनी नाव निकाल रहे थे!

    फिर बंबई की बाढ़ में, ख़ैरपुर नाथन शाह में

    घूमती रही वह-घूमती रही

    घूमता रहा वह सत्य

    और डूबता रहा जोशीमठ अपनी ही मिट्टी में!!

    गुरु के नहीं बताए हुए सत्य के हिस्से का

    मानचित्र है यह देश

    धाम हैं-तीर्थ हैं

    तीर्थयात्री-कल्पवासी-कारसेवक हैं

    पर डूब रहे हैं तीर्थ,

    भोगते हुए अपने तीर्थ होने का अभिशाप!

    गड़ागड़ निकल रही हैं हैं कारें, पहुँच रहे हैं हवाई जहाज़

    सीधे दर्शन को, सीधे प्रभु से मुख़ातिब, वीआईपी दर्शन की लालसा लिए

    और विशाल-ख़स्ताहाल गैरेजों में बदल रहे हैं

    तमाम-तमाम जोशीमठ!

    उस सत्य को

    सलीब की तरह पहने हुए जिसे अगर

    आदिगुरु पूरा-पूरा कह देते

    तो वह पारिस्थितिक होता

    धार्मिक नहीं!

    सभ्यता की कामना में थे

    या शास्त्रार्थ के मोह में

    शायद भूल गए थे गुरु

    तीर्थ सुलभ होता जाएगा!

    सत्य धुंधला और भक्त उतावले!

    कैमरे पहुँच जाएंगे गुफाओं में!

    चोटियों पर बनेंगे हेलीपैड!

    सीमाएं खिंच जाएंगी धरती के सीने पर!

    सड़कों और सुरक्षा का कारोबार फूलेगा-फलेगा!

    उनके कहे हुए सत्य से दुई के

    सैकड़ों बिलबिलाते कीड़े निकल कर आएंगे

    और चाट जाएंगे प्रबोधन की सभी संभावनाओं को!!

    पता नहीं गुरु अपने कहे हुए सत्य की नियति

    जानते थे या नहीं

    पर उस नहीं कहे हुए सत्य के सामने

    पहले की

    निस्सारता क्या छुपी रही होगी उनसे?

    क्या पता देख लिया हो उन्होंने

    कि यह छुपा हुआ सत्य धर्मगुरु नहीं

    वे ही जानेंगे जो इसे वहन करेंगे

    सभ्यता को हॉण्ट करते वे प्रेत

    जो समाज और जंगल के बीच रहते आए हैं

    जो जानते रहें हैं हमेशा से,

    वे लामा,

    वे चन्द्रकीर्ति जाधव,

    वे अबू-असलम,

    की

    कुछ भी नहीं डूबता ख़ुद से

    कुछ भी टूटता-जलता-दरकता-चित्थाड़ नहीं होता

    किसी नियम के तहत

    निर्दोष नहीं होता नदियों का सूखना

    जंगलों का दावानलों की भेंट चढ़ जाना

    धरती के काँप-काँप उठने में भी

    सिर्फ़ धरती की मर्ज़ी नहीं होती!!

    जोशीमठ डूब रहा है

    डूब रही हैं वे तमाम-तमाम जगहें

    जिनपर समय-समय पर सत्य की डींग हुई थी!

    कभी धर्म-

    कभी सत्ता-

    कभी विज्ञान

    के ठौर बने थे जहाँ!

    जोशीमठ डूब रहा है

    जैसे चेर्नोबिल में नाभिकीय विध्वंस हुआ था!

    जोशीमठ डूब रहा है जैसे

    हिरोशिमा-नागासाकी पे

    बम गिरे थे!

    इस डूबने में शंघाई और दिल्ली की

    हवा की गंध है!

    इस डूबने में श्रीलंकाई समुद्र पर

    तैर रहे तेल की लसलाहट है!

    गुरु का नहीं कहा हुआ सत्य

    अब उजागर हो चुका है!

    जाने-बूझे-अन्वेषित-प्राप्त किए सभी सत्य-सारा विवेक

    अब उसके सामने फीके

    बहुत फीके पड़ते जा रहे हैं!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्य मालवीय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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