माँ

man

कुलदीप कुमार

और अधिककुलदीप कुमार

     

    एक

    माँ नींद में कराहती है

    रात में न जाने कब उठकर
    खाट से गिरी रज़ाई वह मुझे
    धीरे से ओढ़ाती है
    और बरसों टकटकी लगाकर देखती है

    वह अँधेरे में कुछ फुसफुसाती है
    और चुप हो रहती है
    रात ने उसकी कभी नहीं सुनी

    अब उसके पास मौसम नहीं आते
    तारीख़ें आती हैं—
    पिता के मरने की तारीख़
    मकान के दुतरफ़ा मुक़दमा बनने की तारीख़
    घर की नींव में गर्दन समेत धँस जाने की तारीख़
    और शहर के एकाएक तिरछा हो जाने की तारीख़
    वह घर को पहने हुए भी
    ख़ुद को बेघर पाती है
    वह रंग उखड़े पुराने संदूक़ को देखती है
    और उसी में बंद हो जाती है

    दर्द उसके पाँव दाबता है
    साँस कमज़ोर छत की तरह गिरती है
    और
    आँखें बदहवासी के रंगों की मार झेलती हैं

    त्योहार लंबी फ़ेहरिस्तों की याद बनकर आते हैं
    ख़ाली रसोई में वह
    चूल्हे पर लगी कलौंस की तरह बैठी रहती है
    और रसोई के किलकने का सपना देखते-देखते
    बाहर निकल आती है

    एक विशाल बंजर मुँह फाड़े उसकी ओर खिसकता है
    वह उसका आना अपनी नसों में महसूस करती है
    जहाँ ख़ून कत्थे की तरह जम रहा है
    आँधी आने पर वह हवा के साथ-साथ दौड़ती है
    वह सभी को छूना चाहती है—उन सभी को
    जिनके कंधों पर चढ़कर आँधी आ रही है
    उसकी झुर्रियाँ पिघलती हैं
    और सड़कों पर बहने लगती हैं

    उसकी हथेलियों के बीचोंबीच एक गहरा कुआँ है
    जिसमें दो आँखें रोज़ गिरती हैं
    और बीते समय के शांत जल में डूब जाती हैं

    वह चाहकर भी पीछे नहीं लौट पाती
    फूलों और रंगों का साथ कुछ ऐसा ही होता है

    घर उसके लिए दुनिया की खिड़की है
    जिससे वह कभी-कभी झाँक लेती है
    वह बरसात में सूख रही धोती की तरह
    धूप के इंतज़ार में है
    वह सपने में भौंह पर उगता सूरज देखती है
    और उसकी काँपती उँगलियाँ
    अंदाज़ से वक़्त टटोलती हुई
    बालों में खो जाती हैं

    माँ नींद में कराहती है
    और करवट बदल कर सोने की कोशिश में
    जनम काट देती है

    दो

    मैं तुम्हारा नाम लेता हूँ
    और एक इक्यावन साल लंबा अँधेरा
    चुपचाप सामने आ खड़ा होता है

    एक धुँध से दूसरी धुँध तक भटकने के बीच
    आरी के लगातार चलने की आवाज़
    कहीं कुछ कटकर गिरा
    तुम्हारे अंदर-बाहर

    उम्र को तलते हुए
    तुमने हर पल असीसा
    मैं हँसता रहा झूलते-झूलते
    तुम्हारे कंधे पर

    वक़्त तब भी इतना ही बेरहम था
    लेकिन याद है
    उन दिनों बारिश बहुत होती थी
    कहीं एक गुल्ली उछली
    सड़क पर पहिया चलाते-चलाते
    बचपन अचानक ग़ायब हो गया
    तुम क्यों मेरा स्याही-सना बस्ता उलट रही हो?
    (गुंबदों के नीचे
    कोई किसी को न पुकारे
    वहाँ सिर्फ़ ध्वनियाँ हैं गोलमोल)

    मैं तुम्हारे दुःख में उतरता हूँ
    डर की तरह
    जैसे गर्भ में (कोई संगीत नहीं?)
    काँपता हो कोई लैंप
    बिना चिमनी का नंगा
    चिराँध में डूबता-काँपता डर की तरह

    कालिख में भीगे उभरते हैं हाथ
    और बहते हैं
    फूलों की तरह किसी याद में

    धूप बहुत तेज़ हो चली है
    तुमसे बात तक नहीं हो पाती
    दुनिया का सारा गूँगापन
    तुम्हारी जीभ पर दानों की शक्ल में उभर आया है
    अचंभा होता है कि ज़िंदगी...
    खनक है, सिर्फ़ खनक
    ठनक है तुम्हारे भवसागर की
    (कि पार न हों कभी इस अभावसागर से)
    ठाकुरजी की आरती करो न!
    जाने क्यों ज़िंदा रहने की तड़प में
    लोग ज़िंदा तड़पते हैं

    कैसा मौसम है
    बारिश तो क्या उसकी बात भी नहीं
    तुमने मुझे
    मोर के पैर क्यों दिए माँ?

    तीन

    घर से ख़त आते हैं

    मैं काँपता नहीं
    क़ातिल जैसे सधे हाथों से
    किताबों में रख देता हूँ

    माँ किताबों से डरती है
    जिनके साथ मैं घर से भागा

    चार

    सपने में दिखी माँ

    वैसी ही सुंदर, गोलमटोल
    जैसी साठ बरस पहले

    आँखों में नहीं थीं झुर्रियाँ
    गालों में नहीं थी काली गहराई
    हाथों से छूटकर नहीं गिर रही थी
    दृष्टि
    वह स्याह फ़्रेम में जड़े
    फ़ोटों में खड़ी थी
    गोद में उठाए शायद मुझे

    तब उसका चेहरा कातर नहीं था

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुलदीप कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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