लोकतंत्र की एक सुबह

loktantr ki ek subah

कमल जीत चौधरी

कमल जीत चौधरी

लोकतंत्र की एक सुबह

कमल जीत चौधरी

और अधिककमल जीत चौधरी

    आज सूरज निकला है पैदल

    लबालब पीलापन लिए

    उड़ते पतंगों के रास्तों में

    बिछा दी गई हैं तारें

    लोग कम मगर चेहरे अधिक

    देखे जा रहे हैं

    नाक हैं नोक हैं फाके हैं

    जगह-जगह नाके हैं

    शहर सिमटा-सिमटा है

    सब रुका-रुका-सा है

    मुस्तैद बल पदचाप है

    बूटों तले घास है

    रेहड़ी-खोमचे-फ़ुटपाथ सब साफ़ हैं

    आज सब माफ़ है!

    बेछत लोग

    बेशर्त, बेवजह, बेतरतीब

    शहर के कोनों

    गटर की पुलियों

    बेकार पाइपों में ठूँस दिए गए हैं

    जैसे कान में रूई

    शहर की अवरुद्ध सड़कों पर

    कुछ नवयुवक

    गुम हुए दिशासूचक बोर्ड ढूँढ़ रहे हैं

    जिनकी देश को इस समय सख़्त ज़रूरत है

    बंद दूकानों के शटरों से सटे

    कुछ कुत्ते दुम दबाए बैठे हैं चुपचाप

    जिन्हें आज़ादी है

    वे भौंक रहे हैं

    होड़ लगी है

    तिरंगा फहराने की

    वाक्-शक्ति दिखलाने की

    ...

    सुरक्षा-घेरों में

    बंद मैदानों में

    बुलेट प्रूफ़ों में

    टी.वी. चैनलों से चिपक कर

    स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है

    राष्ट्रगान गाया जा रहा है

    सावधान!

    यह लोकतंत्र की आम सुबह नहीं है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कमल जीत चौधरी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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