टिहरी शहर

tihri shahr

सुनीता

सुनीता

टिहरी शहर

सुनीता

और अधिकसुनीता

    मैंने पहली बार जब समंदर देखा

    भर गई उम्मीदों से

    और पहली बार देखा टिहरी डैम

    धक से सब डूब गया

    आख़िरी बची उम्मीद भी

    हालाँकि मैंने डूबे टिहरी शहर को ही देखा था

    पर जाने क्यों यह उम्मीद थी

    कि एक दिन टूटेगा यह डैम

    और लौट आएँगे वे सब लोग

    जो अपने लौटने की आख़िरी उम्मीद

    डूबने के बाद ही

    जबरन यहाँ से निकाले गए थे

    मैं उस कुत्ते को देखना चाहती हूँ

    जो अक्सर उस शराबी के पास ही सोता था

    मैं उन पक्षियों के आने के इंतज़ार में हूँ

    जो अपने बच्चों का घोंसला बनाने के लिए तिनका लेने गए

    और गुम हो गए

    उस बिल्ली को भी देखना चाहती हूँ

    जो अपने बच्चों को बहुत दूर तक नहीं ले जा पाई थी

    उस प्यार को जो अभी स्कूल के आँगन में उगा ही था

    और उस जोड़े को भी

    जिसने नदी के पानी में पैर डाल दूर तक साथ चलने का वादा लिया था

    वह लड़की जो लड़ती रही

    कि यह शहर मेरा भी घर है

    मेरा स्थायी पता भी

    उस पते से जाने कितनी चिट्ठियाँ

    बिना पढ़े ही लौट गईं

    मैं उससे मिलकर

    उसका हाल पूछना चाहती हूँ

    मैं पता पूछ रही हूँ

    उन यतीम बच्चों का जो अक्सर

    इन चौराहों पर मिल जाते थे

    वे जिन्हें तुम हिक़ारत से भरकर हिजड़ा कहते थे

    जिन्होंने हर क्षण जी भर आशीषा तुम्हारे बच्चों को

    जिन्होंने अपने सबसे मनपंसद रंगों से

    रँगना चाहा होगा इस शहर को

    अब उनकी दुनिया कितनी

    बेरंग और उदास हो गई होगी

    मैं उस लड़की को खोज रही हूँ

    जो काले बादलों के बीच कहीं मिलती ही नहीं

    नहीं मिलती वह लड़की जिसने घरवालों से लड़कर स्कूल में दाख़िला लिया था

    पहाड़ की पगडंडियों के निशान कुछ यूँ ही

    बने रहे ज़ेहन में

    उस लड़की के पाँव नहीं आते सड़क पर

    उन भेड़ों के झुंड भी अब मैदान में कही खो से गए हैं

    और वे चरवाहें भी

    अब बाज़ार का मतलब भी

    बदल गया है

    कुछ ताज़ी सब्ज़ियाँ व्यवहार में मिल जाती थीं

    और कुछ उधार में भी

    मज़दूर तब भी मज़दूर थे और औरतें तब भी वही थीं जो आज हैं

    बहुत से लोगों ने घर के दरवाज़े खुले ही रखे

    पता नहीं क्यों?

    लेकिन यह कोई टोटका नहीं था

    ताखों में दिए जलते रहे

    पहाड़ के लोग मैदान में आकर परेशान रहे

    अपने होने की गवाहियाँ देते रहे

    पर वे कहीं दर्ज हुईं

    कुछ ने चाय की दुकान खोली

    पर वे कोई राजनीतिज्ञ नहीं थे

    तो दुकान नहीं चली

    बेटियाँ कच्ची उम्र में ब्याह दी गईं

    बेटे मज़दूरी में लगा दिए गए

    और औरतों की दुनिया पहले से और भी सिकुड़कर

    माचिस की डिबिया में समा गई

    डैम का पानी कम होने पर एक छत की तरह दिखता है

    जहाँ लोग गुनगुनी धूप सेंका करते थे

    वह छत मैं फिर से गुनगुनी धूप से भरना चाहती हूँ

    एक पागल औरत जो छोटे-से बच्चे को सीने से सटाए लिए घूमती थी

    उस औरत, बच्चे और पहाड़ के होने का मतलब क्या था?

    वह पहाड़ आज भी बहुत ख़ामोश है

    पर बहुत बेचैन भी

    एक सड़क जो कचहरी की तरफ़ जाती थी

    कितनों के न्याय अधूरे रह गए

    एक बहुत ही परेशान औरत मिली

    इतना ही बोली कि पति के मरने का ग़म नहीं है

    टिहरी का ग़म जाता ही नहीं है सीने से

    पहाड़ जो अब बस यादों में बचा है लोगों के पास

    और डैम जो राष्ट्र का है

    थोड़ी-सी बिजली जो कुछ शहरों को जाती है

    पानी पर तो कोई हिस्सेदारी थी ही नहीं कभी

    वह जाती है पेप्सी-कोला और दारू की कंपनियों को

    एक बच्ची मिली

    उसने इतना ही कहा कि मुझे दादी के घर जाना है

    उससे कैसे कहूँ

    कि अब वहाँ घर है

    दादी ही।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुनीता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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