धोंड्या नाई

dhonDya nai

विंदा करंदीकर

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धोंड्या नाई

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और अधिकविंदा करंदीकर

    कभी-कभी जब

    जाता हूँ मैं कोंकण के अपने गाँव

    विगत स्मृतियों की बरे डँसती हैं मुझको

    और स्मरण हो आती हैं धोंड्या नाई की

    हास्य कहानियाँ।

    धोंड्या नाई

    सोलह सेर भात के वार्षिक मेहनताने की ख़ातिर

    करता रहता हजामत समूचे घर की

    दादा जी का चिकना सफ़ाचट गोटा,

    गजानन की चंदिया रखी चोटी

    और मेरा 'कट' असली शहरी

    या दाढ़ी (बचा कर मस्सों को)।

    धोंड्या नाई

    महीने भर में एकाध बार

    चुपके से आता घर के पिछवाड़े

    और फिर

    झुग्गी के पीछे जाकर करता था कुछ अद्भुत

    जो हमें कोई देखने देता था कभी

    धोंड्या नाई

    चाय ले वह कभी घनचक्कर।

    हाँ, भोजन उसका भक्कम;

    भोजन देने से

    अच्छा था उसको देना रक्कम

    जब उसको होती थी फ़ुरसत

    मूंड जाता ‘खंडया’ भैंसे को, ‘चाँदी’ भैंस को,

    इसके एवज़ में मिलती थी उसको नहरी

    कहती थी अम्मा नहरी उसकी दो सेर बिदागी (मेहनताना) पूरी

    धोंड्या नाई

    ‘याने केवल पत्थर’

    कहते हैं हमारे दादा

    ‘एक साल में

    लगातार

    बच्चे मरे चार, हैजे से

    लेकिन वह धोंड्या अपना

    जैसा का तैसा! बदला है बिलकुल’

    ‘एक रहे पीछे कंधा देने जब तक

    मैं कहता हूँ मर जाए कोई तो छूट गया वह।’

    धोंड्या ऐसा पत्थर!

    धोंड्या नाई

    जब आता था बाल बनाने

    आता था विष्णु बनिया उसे पकड़ने

    पैसों की वसूली को

    कर थोड़ा-सा मज़ाक

    शुरू करता था मुँह का पट्टा

    ''शरम तुम्हें थोड़ी-सी धोंड्या,

    वादा कर चार दिनों का

    पैसे लौटाने का

    बच्चे के लिए ले गया रुपए तेरह

    और अब महीने चौदह

    भाड़ जाए मूलधन

    गर देता तू ब्याज का पैसा

    काका ज़मींदार नहीं हूँ मैं

    मैं हूँ विष्णु बनिया

    ला दे मेरे पैसे

    और फिर ले जा अपनी पेटी''

    धोंड्या नाई

    हाथ बाँस-से जोड़ नाक के आगे

    फिर कहता है

    ''साहूकार जी!

    हो तुम भगवान हमारे।

    बच्चा बचा आपके पैसे से,

    वे पैसे मैं अदा करूँगा सारे

    कसम मुझे भगवान की

    लड़के को लिक्खा है ‘भेजो फौरन कुछ पैसे’

    —लिखने वाला पांडु गुरु जी—

    पूछो उससे

    अगर नहीं भेजेगा लड़का पैसे तो

    ‘भोरा’ भैंसा बेचूँगा मैं

    बुवाई होने पर''

    इतने में

    निकाल कमीज़ रख खूँटे पर,

    खिसकती रही धोती सँवार

    तोंद पर

    हाथ फिराते दाढ़ी पर मौज़ में

    काका खोत बताते—

    ''धोंड्या, अरे हरामी

    यह भोंरा भैंसा कितनी बार बेचोगे?

    मेरा ब्याज चुका

    देने की बात कही थी कल तुमने

    और गदहे

    मेरे ही सम्मुख

    वही कह रहे हो विष्णु बनिए से''

    धोंड्या नाई

    स्वभाव से ममतालु

    लेकिन उसके वे देशी हथियार भयंकर!

    मुझसे करता था पहले से वह प्यार

    गोटा करते हुए जनेऊ में

    सहलाया था मेरा माथा (खुजली भरा)

    हौले से मारी थी फूँक

    गर्दन पर के बालों को तराशते,

    सह्य मुझे हो जाए सब

    कहता रहता था पुरा काल की हास्य कथाएँ नाना

    भूत-प्रेत और पिशाच-लोक से था उसका परिचय घना

    नीति कथाएँ सुनते-सुनते

    चुटकी में होता था गोटा।

    धोंड्या नाई

    विचित्र था वह प्राणी

    गांधी हत्या के तुरंत बाद

    दाढ़ी करते-करते

    हलकी आवाज़ में बोला था मुझसे

    ''गांधी मरा बेचारा

    कहते हैं लोग,

    बहुत-बहुत था मन में

    इस ओर अगर वह आता

    फोकट में करूँ हजामत उसकी।''

    ब्राह्मण भी थे आसपास

    लेकिन उनमें रही नहीं थी हिम्मत

    हँसने की। रोने की भी।

    (हँसना रोना एक मूलतः आँसू का यह मज़ा अनोखा)

    धोंड्या नाई

    विगत साल वह मरा और छूटा

    धँसा मकान, था बचा बरामदा मात्र!

    बिचारी जनी जोरू उसकी

    उसमें ही रहती है, खाती है कुछ उबाल कर

    ‘मुझे ले चलो जीते जी जलाओ’ कहती है

    माँजती रहती है बासन

    सोती है

    उठती है

    नामालूम डरती है किससे

    कभी छूती धोंड्या की पेटी को!

    बरामदे की एक अकेली खूँटी पर

    ऐंठ-ऐंठ कर

    अपने ही पट्टे से फाँस अपने को

    पेटी कर रही विश्राम;

    टेक शीष को घिसे सान पर

    औज़ार भी सोए सारे होकर उसमें जर्जर!

    धोंड्या नाई

    ‘धोंड्या याने केवल काला पत्थर’

    अब भी कुछ कहते हैं।

    धोंड्या को नहीं अकल थी दुनियादारी की

    धोंड्या गया, छूट गया

    क्यों हो मुझे अब उसकी चिंता?

    मेरे भी सिर पर अब फैला है चौड़ा-सा गंजापन।

    स्रोत :
    • पुस्तक : यह जनता अमर है (पृष्ठ 105)
    • रचनाकार : विंदा करंदीकर
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2001

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