बाहरी जगत मुझे होकर भाषा में बह जाता है

bahari jagat mujhe hokar bhasha mein bah jata hai

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

बाहरी जगत मुझे होकर भाषा में बह जाता है

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

और अधिकदिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

    बाहरी जगत मुझसे होकर भाषा में बह जाता है

    कभी-कभी बीच में उच्चारित शब्दों के अक्षर आते हैं

    सपाट काग़ज़ पर काली लिपि ठहर जाती है

    कविता से उसके बाद मेरा प्रत्यक्ष संबंध नहीं रहता

    सपाट काग़ज़ पर लोगों की आँखें भटकती हैं

    काली में लिपि में फिर एक निराला वेग जाता है

    अक्षरों के शब्द बनते हैं फिर उनका उच्चारण होता है

    वही संबंध भाषा से बह कर जाता है एक आंतरिक जगत में

    वह आतंरिक जगत मेरा नहीं है उनका भी नहीं

    अनेक आंतरिक जगों से मिल कर बनता है वह जग

    जिसके बाहर हममें से कोई भी नहीं जा सकता

    और जिसमें हम अकेले भटकते रहते हैं उदास

    एक बोधातीत पाशविक अंग में जैसे जकड़ा रहता है

    उतने ही दुर्बोध आत्म का अदम्य प्रकाश।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैजिक मुहल्ला खंड एक (पृष्ठ 127)
    • रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2019

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