फिर कफ़न

phir kafan

प्रकाश

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फिर कफ़न

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और अधिकप्रकाश

    शराब के नशे में ‘ठगिनी क्यों नैना झमकावै’ गाते-गाते

    जब घीसू और माधव लड़खड़ाकर

    शरबख़ाने के बाहर गिर पड़े थे

    तो किसी ने घसीटकर दोनों को

    एक किनारे लगा दिया था

    सुबह शराब और नींद की ख़ुमारी में

    उठ कर जम्हाई लेने के बाद

    जब बाप और बेटे की नज़र एक दूसरे से मिली

    तो एकाएक दोनों को याद आया

    कि बुधिया की लाश तो झोपड़ी में ही पड़ी है

    और वे पिछली शाम से

    कफ़न लेने बाज़ार आए हुए हैं

    फिर उन्हें याद आया

    कि गाँठ के सारे पैसे जा चुके हैं

    दोनों की नई समस्या थी

    कि गाँव वालों को क्या कहेंगे

    और बिचारी बुधिया भी अपने कफ़न का इंतज़ार कर रही होगी

    किसी तरह डरते-हिचकते वे दोनों

    जब गाँव के भीतर घुसे, एक लंबा वक़्त गुज़र चुका था

    उन्हें कुछ अजीब-सा लगा

    एक पक्की-काली सड़क जैसे जबरन गाँव में घुस आई थी

    उस पर चलकर अंदर पहुँचे कई ट्रकों से

    अजीबो-ग़रीब सामान उतारे जा रहे थे

    हैरत से ट्रक को घेरे खड़े गाँववालों को

    ट्रक का एक आदमी बता रहा था

    यह शहर से आया बढ़िया माल है

    और यह सात समुंदर पार से

    और यह सत्रह, यह अठारह, नहीं नहीं बीस समुंदर

    पार से आया नया सामान है—

    सस्ता और बढ़िया!

    गाँववालों ने घीसू और माधव को देखा

    दोनों झेंपते-से खड़े थे

    फिर गाँववालों की नज़र फिरकर

    ट्रक से उतारे जाते सामानों पर टिक गई

    थोड़ी देर बाद उनमें से कुछ झिझकते हुए बढ़े

    और सामानों को छू-छूकर देखना शुरू कर दिया

    एक अजीब-सी सिहरन और रोमांच

    उनकी देह में दौड़ रहा था

    उनकी कल्पना सात और बीस समुंदर पार

    जाने के लिए बेचैन हो रही थी

    घीसू और माधव को लगा

    जैसे शराब पीने के बाद

    वे कफ़न के बारे में भूल गए थे

    फिर सुबह याद आया था

    वैसे ही गाँववाले भी किसी अजाने नशे में

    कफ़न की बात भूल गए हैं

    और आने वाली किसी सुबह उन्हें

    इसकी याद फिर आएगी

    तब उन दोनों को तलब किया जाएगा

    उपेक्षित से वे दोनों

    अपनी झोंपड़ी की ओर लौटे

    पिछले दिनों के अलाव की बुझी हुई

    राख जमी पड़ी थी

    वे झोंपड़ी के अंदर गए

    चारपाई पर अस्त-व्यस्त पड़ी बुधिया की

    टँगी हुई आँखें देखकर

    इस बार उन्हें डर नहीं लगा

    दोनों उकड़ूँ ज़मीन पर असहाय बैठ गए

    उनकी आँखें सूनी थीं

    दोनों को भूख भी लग आई थी

    उन्हें रोटी की ज़रूरत थी

    और उधर आँख फाड़े

    शून्य में एकटक ताकती बुधिया

    दानों से अपना पाया हुआ

    कफ़न फिर माँग रही थी!

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रकाश
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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