ज़िंदगी

zindagi

रहमान राही

रहमान राही

ज़िंदगी

रहमान राही

और अधिकरहमान राही

    1.

    ज़िंदगी एक अंधी, मुँडे सिर वाली बुढ़िया-सी लगती है

    जब सुबह शीशे-सा आकाश काले बादलों का देखता है मुँह

    तारों के दीप बुझाकर जैसे राक्षस कोई निगलता है चंद्रमा

    पर्वत पीछे से होती है गर्जना

    बिजलियों के अग्निबाण जब घुमाने लगते हैं जिन्न

    ओले देख धड़कने लगते हैं सख़्त दिल

    घर छिन जाने का भय जब बाग़ के पक्षियों को कर देता है उदास

    भय से प्रसविनी गाय का धब्बेदार बछड़ा जब गुमसुम हो जाता है

    बारिश के पानी की ग़रक़ी सुन बेबस झोंपड़ियों की नीवें

    हिलने लगती हैं

    आँखें फाड़-फाड़ कर असहाय-सा देखता है रसोई-घर

    ऐसे में जब पुलिस की टुकड़ी आती है रौंदती कँकरीला पथ

    हथकड़ियों में होती है झनझनाहट,

    पगड़ियों की कलगियाँ लगती हैं लहराने

    दरवाज़े की अटकनी का दिल लगता है काँपने

    और साँकल करने लगती है रुदन

    हुक्म-ए-हाकिम मूछों पर ताव लाकर आँगन में घुस आता है

    पूछे बिना ही अपराधी की करता है तलाश

    जैसे कोई लकड़हारा वन में चीड़ ढूँढ़ रहा हो

    जैसे शिकारी कोई सरोवर के बत्तख के समीप गया हो

    किसी बेख़बर नवयुवक को सीढ़ियों पर से

    चील की झपट के समान वारंट पकड़ ले जाती है

    तोप की धाँय धाँय-सी कड़कती हैं बिजलियाँ

    पवन दौड़ता बेकाबू घोड़े-सा

    खिड़कियाँ दरवाज़े होने लगते हैं बंद

    जैसे गोले हों बरसते हर तरफ़

    हाल बुरा देख किसी माँ की जीभ अटक जाती है तालू में

    किसी मैना की निकाली जाती हो जैसे धब्बेदार पूँछ

    बुलबुल की शिखा जैसे कोई ले जाता है छीन

    हिरनी कोई जंगल की आग से भयभीत जैसे

    जब निकलता है पास से, पीछे बँधे हाथों वाला, बेटा उसका

    तब उसे अपने अरमानों का शिथिल अरस टूटता-गिरता नज़र आता है

    ज़िंदगी तब लगती है मुँडे सिर वाली बुढ़िया-सी।

    2.

    ज़िंदगी लगती है तब एक सुकुमार रूपसी-सी

    सूर्य के कपोल जब होने लगते हैं लाल चार बजने से पहले

    मड़ाह पास के स्कूल में

    कोई चपरासी बाँह घुमा-घुमाकर बजाता है घंटा

    चौकड़ी मार कर बैठी ज़िंदगी अंगड़ाई लेकर जाग-सी जाती है

    धूप में झुलसी हुई कोई पुष्पलता जैसे पा जाती हो छाया

    मास्टर निकलता है अगले सुबह की तैयारी कर

    तय होता है चिनार तले दो बच्चों का खेल

    जैसे कबूतर का जोड़ा आकाश छू लेने की खाता है क़सम

    स्कूल का आँगन बच्चों का खेल देख लगता है चहचहाने

    जैसे घोंसलों से निकल कर पक्षी उतर आए हों बाग़ में

    जैसे फूट आई हों किसी सूखी टहनी पर नव-कोंपले

    बाँधते हैं पुस्तकें, कुछ घुमा कर तलियाँ लगाते हैं दौड़

    पारे की तरह बहते हैं

    और कुछ हिरणों-से उछलते मत्त हो जाते हैं

    चौकीदार खोल देता है आँगन का द्वार

    बाज़ार में सारे हो जाता है होहल्ला

    झाबा चने वाले का हो जाता है ख़ाली एक पल में

    मूँगफली वाले की भी आती हैं आवाज़ें

    ऐसे में कोई माँ

    उधर बादाम की बग़ीची से लौटते

    इन स्कूली बच्चों को

    जब गलियों में दौड़ते देखती है

    तब उसे अपनी छाती से चिपका दूध-पीता लाड़ला

    लगता है जैसे चलने को आतुर

    होती है अभिलाष पूरी

    अपने लाल का हाथ पकड़ जब ले जाती है स्कूल की ओर

    तब लगता है यह संसार वसंत के स्वप्न जैसा

    तब यूँ ही कोई मधुर गीत गुनगुनाते हैं उसके लाल होंठ

    ज़िंदगी लगती है तब एक सुकुमार रूपसी-सी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रहमान राही की प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 21)
    • संपादक : गौरीशंकर रैणा
    • रचनाकार : रहमान राही
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2009

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