कभी नहीं सोचा था

kabhi nahin socha tha

अनुवाद : चमनलाल

सुरजीत पातर

सुरजीत पातर

कभी नहीं सोचा था

सुरजीत पातर

और अधिकसुरजीत पातर

    वैसे तो मैं भी चंद्रवंशी

    सौंदर्यवादी

    संध्यामुखी कवि हूँ

    वैसे तो मुझे अच्छी लगती है

    कमरे की हल्की रोशनी में

    उदास पानी की तरह चक्कर लगाते

    एल. पी. से आती

    यमन कल्याण की धुन

    वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है

    शब्दों और अर्थों की चाबियों से

    कभी ब्रह्मांड को बंद करना

    कभी खोल देना

    क्लास-रूम में बुद्ध की अहिंसा-भावना को

    सफ़ेद कपोत की तरह पलोसना

    युक्लिप्टस जैसे हुस्नों पर

    बादल की तरह रिस-रिस बरसना

    वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है

    आसमान पे सितारों को जोड़-जोड़कर

    तुम्हारा और अपना नाम लिखना

    लेकिन जब कभी अचानक

    बंदूक़ की नली से निकलती आग से

    पढ़ने गए हुओं की छाती पर

    उनका भविष्य लिखा जाता है

    या गहरे बीजे जाते हैं ज्ञान के शर्रे

    या सिखाया जाता है ऐसा सबक

    कि घर जाकर माँ को सुना भी सकें

    तो मेरा दिल करता है

    जंगल में छिपे गुरिल्ले से कहूँ :

    ये लो मेरी कविताएँ

    जलाकर आग सेंक लो

    उस क्षण उसकी बंदूक़ की नली से

    निकलती आवाज़ को

    ख़ूबसूरत शेर की तरह बार-बार सुनने को जी चाहता है

    हिंसा भी इतनी काव्यमय हो सकती है

    मैंने कभी सोचा था

    सफ़ेद कपोत लहूलुहान

    मेरे उन सफ़ेद पन्नों पर गिरता है

    जिन पर मैं तुम्हें ख़त लिखने लगा था

    ख़त ऐसे भी लिखे जाएँगे

    मैंने कभी सोचा था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कभी नहीं सोचा था (पृष्ठ 79)
    • रचनाकार : सुरजीत पातर
    • प्रकाशन : सारांश प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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