आई बो

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शचींद्र आर्य

और अधिकशचींद्र आर्य

    हवा में तैरते हुए

    किसी भी तरह कुछ कह पाना,

    कितना मुश्किल है

    इस बात को अपने भीतर सोचना

    बिन हवा

    हवा में तैरने के

    ख़याल जितना ही मुश्किल

    बना हुआ है।

    बिन हवा

    हवा में तैरना

    नींद में बहते सपने जैसा है।

    कोई सपना

    कभी पूरा हुआ है कभी,

    सवाल यह नहीं है!

    सवाल है,

    जिस भाषा में हम

    शब्द, वाक्य, मौन या कोई और भाव भंगिमा बुनते हैं,

    वह पतंग उड़ाने जैसी होती

    तब पतंग ही कटती

    धागा ही कन्नी में बँधा हुआ,

    पेड़ में जाकर अरझ जाता

    कहीं कोई मारा नहीं जाता

    कि उसने पतंग उड़ाई और मर गया

    मर गया कि

    उसकी पतंग ने बहुत सारी

    पतंगों से पेंच लगाते हुए

    उनकी पतंगे काट दी

    जो उड़ाने में उस्ताद थे

    अगर पतंगें कट गईं

    तो भी क्या हो गया

    वह चले जाते सुनील पतंग वाले के पास,

    ले आते

    अपनी मनपसंद पतंग,

    मजबूत माँझा।

    सद्दी से पतंग उड़ाने के लिए

    उन्हें किसने कहा था?

    चरखरी जिसने पकड़ रखी थी,

    ढील जिस पतंगबाज़ ने नहीं दी थी,

    उस वजह से पतंग कट गई थी।

    पर क्या करें

    हवा में

    धागे की तरह लहरती,

    बल खाती, चने के झाड़ जितनी इस भाषा का

    इस मुहावरेदार और तिर्यक भाषा में भी

    किसी का पतंग उड़ाना,

    उनकी पतंग का कट जाना

    अखर जाता है, उन कटी पतंग वालों को।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शचींद्र आर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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