अनखाई रोटियाँ चाँद हो गई हैं

ankhai rotiyan chand ho gai hain

संजय राय

संजय राय

अनखाई रोटियाँ चाँद हो गई हैं

संजय राय

और अधिकसंजय राय

    ट्रेन आती है

    और चली जाती है

    लेकिन

    जैसे धूप से छनकर

    धरती पर पसर जाती है साँझ

    नींद से छनकर सपना टहल रहा है पटरी पर

    सूखी रोटियाँ का ताज़ा सपना

    अब भी उतना ही ताज़ा है

    जबकि लोग अंतिम रूप से जा चुके हैं

    घर की ओर लौटते अपने साथियों को बिना बताए

    अनखाई रोटियाँ चाँद हो गई हैं

    पटरी पर पड़े-पड़े

    और भूख उनके सपने से निकल कर

    अब भी भटक रही है यहाँ-वहाँ

    ट्रेन आती है

    ...चली जाती है

    व्यवस्था

    सफ़ेद पोशाक में

    मुँह पर मास्क लगाए बग़ल में खड़ी है

    और चाँद से ख़ून रिस रहा है

    अजीब बात है

    पता ही नहीं चलता कब

    दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का

    बड़े गर्व से दावा करने वाली व्यवस्था के भीतर

    भूख को मार-मार कर जीने की

    सदियों से चली रही तमाम कोशिशें

    उसी व्यवस्था और भूख का शिकार होने के लिए

    छोड़ दी जाती हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : पहल-124 (पृष्ठ 152)
    • संपादक : ज्ञानरंजन
    • रचनाकार : संजय राय

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