आश्वस्त करो

ashwast karo

सिद्धार्थ बाजपेयी

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आश्वस्त करो

सिद्धार्थ बाजपेयी

और अधिकसिद्धार्थ बाजपेयी

    पढ़ा कि ढाई सौ साल पहले बंगाल में

    बहुत सारे चावल को बदला रुपयों में

    और ले गए उसे

    सात समंदर पार

    कुछ व्यापारी

    बड़े-बड़े जहाज़ों में

    पीछे रह गई एक दारुण

    अंतड़ियों को ऐंठने वाली

    जानलेवा हिंसक भूख,

    जो फैल गई बंगाल के पोखरों, गलियों और देहातों में

    एक अशुभ, दुर्गंधित हवा की तरह

    फिर रह गई बस मरणांतक यातना से बचने की

    याचना करती

    भूख से सूखी

    लाखों देहें,

    और मुर्शिदाबाद की

    हुगली नदी में बहती

    पिचके पेटों वालों की

    हज़ारों फूली लाशें,

    मैं हुगली के पास हूँ अभी

    और पूछता हूँ :

    अरे, ये समय क्या है?

    भूल गया हूँ

    बताओ कि ये कौन-सा समय है?

    बताओ मुझे कि क्या हुगली का पानी

    मीठा हो गया अब?

    क्या भूख की चीत्कार का ज़हर

    साफ़ हो गया है

    मुर्शिदाबाद की हवाओं से?

    इन दो-तीन सदियों बाद

    क्या वहाँ की सड़कों से अब नहीं आती

    भूख से बिलबिलाती आत्माओं की

    दमघोंटू दुर्गंध?

    बताओ मुझे कि क्या चावल

    अब नहीं बदला जा रहा रुपयों में?

    फिर सोने में?

    फिर बंदूक़ों में?

    क्या बड़ी-बड़ी तिजोरियों में

    सात समंदर पार

    चावल ले जाने वाले

    सारे व्यापारी

    अब मर गए हैं?

    या अभी भी चलते हैं उनके

    बड़े बड़े जहाज़

    भरे हुए

    चावल से बने रुपयों से?

    क्या सत्रह सौ सत्तर वाला मुर्शिदाबाद

    सचमुच मिट गया है

    इस धरती से ?

    बोलो, बताओ मुझे कि यह इक्कीसवीं सदी है

    और चावल अब चावल रहता है

    मुझे आश्वस्त करो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सिद्धार्थ बाजपेयी
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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