समुद्र-मंथन

samudr manthan

शरद बिलाैरे

शरद बिलाैरे

समुद्र-मंथन

शरद बिलाैरे

और अधिकशरद बिलाैरे

    मैं समुद्र-मंथन के समय

    देवताओं की पंक्ति में था

    लेकिन बँटवारे के वक़्त

    मुझे राक्षस ठहरा दिया गया और मैंने देखा

    कि इस सबकी जड़ एक अमृत-कलश है,

    जिसमें देवताओं ने

    राक्षसों को मूर्ख बनाने के लिए

    शराब नार रखी है।

    मैं वेष बदल कर देवताओं की लाइन में जा बैठा

    मगर अफ़सोस अमृत-पान करते ही

    मेरा सर धड़ से अलग कर दिया गया।

    और यह उसी अमृत का असर है

    कि मैं दोहरी ज़िंदगी जी रहा हूँ।

    दो अधूरी ज़िंदगी

    राहु और केतु की ज़िंदगी

    जहाँ सिर हाथों के अभाव में

    अपने आँसू भी नहीं पोंछ सकता, तो धड़

    अपना दुख प्रकट करने को रो भी नहीं सकता।

    दिन-रात कुछ लोग मुझ पर हँसते हैं

    ताना मारते हैं

    तब मैं उन्हें जा दबोचता हूँ।

    फिर सारा संसार

    ग्रहण के नाम पर कलंक कह कर

    मुझे ग़ाली देता है।

    तब मुझे अपनी भूल का एहसास होता है

    क्योंकि समुद्र-मंथन के पूर्व भी

    मैं राक्षस ही था

    और इस बँटवारे में राक्षसों ने

    देवताओं को धोखा दिया था

    मेरी ग़लती थी कि मैं

    बहुत पहले से वेष बदल कर

    देवताओं की लाइन में जा खड़ा हुआ था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तय तो यही हुआ था (पृष्ठ 44)
    • रचनाकार : शरद बिलौरे
    • प्रकाशन : परिमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1982

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