भव्यता के विरुद्ध

bhawyata ke wiruddh

रविशंकर उपाध्याय

रविशंकर उपाध्याय

भव्यता के विरुद्ध

रविशंकर उपाध्याय

और अधिकरविशंकर उपाध्याय

    भव्यता ने मुझे हर बार आशंकित किया है

    इतना कि मैं अब आशंकाओं से प्यार करने लगा हूँ

    उन्हें सबसे ज़्यादा अपने क़रीब पाता हूँ

    इतना क़रीब जितना समुद्र अपनी लहरों को

    वनस्पतियाँ अपनी जड़ों को

    मुझे घृणा होती है भव्य घोषणाओं से

    आयोजनों की भव्यता से

    इसी भव्यता ने छला है

    हमें सबसे ज़्यादा

    वितृष्णा होती है

    देखकर भव्य इमारतों को

    जिनमें लगी हर ईंटों ने प्यार किया था

    उन कारीगरों से

    जो आज सबसे बड़ी झुग्गियों के बाशिंदे हैं

    विकास की पैमाइश और उसकी व्याख्या से प्रसन्न

    छवियों से कोफ़्त होती है मुझे

    जिन्हें थोड़ी भी शर्म नहीं है

    लुटेरों और तानाशाहों के चारण-गान में

    आज भी उन्हीं की तरह बोलना और चलना चाहते हैं

    सीखते हैं आज भी सभ्यता की भाषा

    उन्हीं के शब्दकोश के सहारे

    उन्हें नहीं पता कि इन शब्दों तक तो जाने की छूट है

    पर अर्थों को स्वीकार करना मजबूरी

    हर क्षण जिलाए रखना चाहता हूँ

    अपने प्रेम को

    जहाँ सदैव खड़ी रहें आशंकाएँ

    हर भव्यता के विरुद्ध।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 71)
    • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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