अगर हो सके

agar ho sake

अशोक वाजपेयी

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अगर हो सके

अशोक वाजपेयी

और अधिकअशोक वाजपेयी

     

    आश्विट्ज़-2

    अगर हो सके तो 
    मैं अपने समय के लिए 
    उम्मीद की एक नई वर्णमाला लिखना चाहता हूँ :
    कहाँ से शुरू करूँ ‘अ’—
    कुल तीन फ़ीट ऊँची झुग्गी में नवजात शिशु के रोने 
    और बर्फ़ से ढँके निर्जन अरण्य के वृक्ष के कोटर में 
    अपनी माँ की प्रतीक्षा करते पक्षी से?

    ‘थ’ लिखूँ यातना-शिविर में दूसरे से पहले 
    अपने को मरने के लिए प्रस्तुत करते युवक से या 
    जेल की दीवार पर मृत्युदंड की प्रतीक्षा करते हुए 
    नाख़ून से उकेरे गए पद्य से?

    ‘ण’ लिखूँ 
    आतंक के सामने लाठी, चश्मे और चरखे के 
    अविचलित रहने से या 
    दंगे की आग में सब कुछ राख हो जाने के बाद 
    एक लहूलुहान बुढ़िया को अपना घर खोजने में मदद करती 
    अपना सब कुछ गँवा चुकी औरत से?

    अब जब अन्याय के कंगूरे दमक रहे हैं 
    जब क्रूरतम चेहरों की मूर्तियाँ चौराहों पर से अजायबघरों में हटा दी गई हैं 
    जब घृणा एक सुगठित वृंदगान की तरह छा रही है पृथ्वी पर 
    जब बिना क़ैद के भी हम सब बंदी हैं अपनी क्षुद्रताओं में—
    मैं अपने पोते के तोतले प्रश्न के उत्तर में कि ‘तुम का कल्लै हो’
    इतिहास की कभी न साफ़ हो सकने वाली स्याह पड़ती स्लेट पर 
    उम्मीद की एक नई वर्णमाला लिखना चाहता हूँ 
    जिसमें संसार के सभी बच्चे 
    अपनी इबारत बिना हिचक और डर के लिख सकें।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अशोक वाजपेयी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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