हिंदी के विभागाध्यक्ष

hindi ke wibhagadhyaksh

पंकज चतुर्वेदी

पंकज चतुर्वेदी

हिंदी के विभागाध्यक्ष

पंकज चतुर्वेदी

और अधिकपंकज चतुर्वेदी

    हिंदी विभाग में एक प्राध्यापक हैं

    जिन्हें अध्यक्ष जी कहते हैं गणेश जी

    मानो उनसे शुरू किया जा सकता है कुछ भी

    एक और हैं सबसे वरिष्ठ और सचमुच विद्वान

    शहर में उनके नाम से होती है विभाग की पहचान

    अध्यक्ष जी उन्हें कहते हैं पंडित जी

    जैसे यह जताने को

    पंडित तो हैं

    पर हैं तो निर्वीर्य ही

    दो महिलाएँ भी हैं प्रवक्ता

    अध्यक्ष जी कहते हैं, देवियाँ हैं

    माहौल बना रहता है कुछ ख़ुशगवार

    लेकिन क्या जागेंगे शुभ विचार

    और शिक्षा सेवा आयोग से

    अभी चयनित होकर आए हैं

    दो नई उम्र के अध्यापक

    अध्यक्ष जी कहते हैं कि बच्चे हैं

    बच्चों में है नहीं समझ अध्यात्म की

    पढ़-लिखकर सब गँवा दिए हैं संस्कार

    मसलन पैर छूने को अध्यक्ष जी

    बताते हैं महाविद्यालय की संस्कृति

    और पैर छुए जाने पर

    एक प्रचलित नारा है उनका आशीष

    यानी 'जय श्री राम'

    एक दिन अध्यक्ष जी बोले :

    विभाग में दो-दो देवियों के बावजूद

    एक दर्पण तक नहीं है

    और ही है

    चाय-बिस्किट का इंतिज़ाम

    इस पर पंडित जी ने

    चपरासी को बुलवाकर

    अपने पैसों से सबको चाय पिलाई

    और कहा—

    दर्पण की भला ज़रूरत क्या है

    हमारे चेहरे ही दर्पण हैं

    जिनमें हम पढ़ सकते हैं

    औरों के मन में बिंबित

    रूप हमारा कैसा है

    अध्यक्ष जी को ऐसी चाय ऐसे हस्तक्षेप

    पसंद नहीं आते हैं

    पंडित जी से वह झुँझला जाते हैं

    अध्यक्षता में है वीर और रौद्र रस कभी-कभार

    शांत में हास्य का समावेश आपने देखा ही

    इस विवरण की ऐन शुरूआत में

    अद्भुत और भयानक बातें भी हैं ख़ूब

    हालाँकि प्रमुख हैं वात्सल्य और शृंगार

    इस तरह रस तो कमोबेश

    सभी हैं हिंदी विभाग में

    पर इन सबके संघात से

    होता है करुणा का उद्रेक

    विडंबनाएँ सामने आती हैं

    पंडित जी कहते हैं, विशिष्ट हिंदुत्व से

    ख़तरे में पड़ गया है सामान्य हिंदुत्व

    अध्यक्ष जी किसी हिंदू संगठन के भी हैं अध्यक्ष

    वहाँ से वह अपने लिए

    जुटाते हैं साहित्य-विवेक

    देखनी है समाज की हालत और राजनीति

    महाविद्यालय के लिए कहाँ समय बचता है

    देर से आएँ या भी आएँ अध्यक्ष जी

    विभाग के सदस्य करें कलह उनसे

    केवल अपना सही रखें आचरण

    अध्यक्ष जी सुनाते हैं 'तैत्तिरीय उपनिषद्'—

    आचार्यों के अच्छे चरित ही देखें, अन्य नहीं

    हर जगह जायज़ नहीं अनुसरण

    लेकिन अब जायज़ काम कहाँ हो पाते हैं

    भावुक बनकर अध्यक्ष जी दोहराते हैं

    अपने एक भूतपूर्व और अब दिवंगत

    अध्यक्ष जी की दो इच्छाएँ

    एक तो विभाग में स्त्रियाँ नियुक्त हों

    दूसरे, कोई अवर्ण आने पाएँ

    पर क्या करते सन् अट्ठासी में

    उनकी पहली इच्छा विफल हो गई

    पिछला अध्यक्ष नहीं माना

    और दूसरी इच्छा की रक्षा हो पाएगी

    अध्यक्ष जी के मन में है संदेह

    आख़िर आयोग का क्या ठिकाना

    जब पंडित जी जाएँगे

    उनकी जगह अवर्ण ही आएँगे

    आयोग हाथ में सही

    हिंदी के तो अध्यक्ष जी हैं कीमियागर

    कहते हैं वह, नामवर सिंह को

    नहीं लिखनी आती है व्याकरणसम्मत भाषा

    'हिंदी' शब्द वैदिक है

    कितनों को है पता

    कैलास में जब तालव्य 'श' बनता है

    तो उसका अर्थ हो जाता है गधा

    और सुनो, युवावस्था का प्रेम

    प्रेम नहीं, काल-दोष होता है

    सबको स्त्री-रत्न नहीं मिल पाता

    संतानों की संख्या भी

    निश्चित करते हैं परमपिता

    ये फुटकर बातें हैं, लगतीं विशृंखल-साधारण

    पर इनमें है कितना मर्म भरा

    बाँध रहा है इन्हें सूत्र कोई जो ओझल है

    वही जिसे अध्यक्ष जी अपना भी आदर्श मानते

    प्रकट करते जिसे सबसे अंत में हमेशा

    यह कि सब प्रारब्ध की बात है बेटा

    प्रारब्ध ही है कि अध्यक्ष जी

    अपनी धारा में चाह रहे

    सबके चिंतन का समाहार

    हिंदी विभाग को समझ रहे

    अपनी पूँजी, अपना परिवार

    अपने से केवल आठ वर्ष

    कनिष्ठ महिला प्रवक्ता को

    पुकारते हैं कहकर बेटा

    मानो यह विज्ञापन है ज़रूरी

    नहीं है उनके मन में कहीं कोई विकार

    बंधुत्व की भी आकांक्षा नहीं

    हमउम्र स्त्रियों के भी वह पिता सरीखे हैं

    बच्चों के तो ख़ैर पिता वह हैं ही

    स्रोत :
    • रचनाकार : पंकज चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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