मित्रता

mitrata

बी. गोपाल रेड्डी

और अधिकबी. गोपाल रेड्डी

    वह बाढ़ नहीं है

    एक पल में डुबोने,

    नाश करने

    और लुप्त होने के लिए,

    वह तो धीरे-धीरे बहता

    निर्मल जल है।

    वह फूल नहीं है

    एक ही दिन में

    विकसित होकर

    महककर

    मुरझा जाने के लिए,

    पंखुड़ियों के बिखर जाने पर

    मृत्यु की गोदी में लेट जाने के लिए।

    वह लता नहीं है

    एक ही ऋतु में

    शीघ्रता से बढ़कर

    तरु से लिपटकर

    फूल कर

    मधुपों का आवाहन कर

    मधु पिलाकर

    उन्हें बिदा कर

    मिटा जाने के लिए।

    मित्रता

    बिजली की तरह कौंधकर

    बादलों के पर्दे में

    छिपने वाली है, दबने वाली है।

    मित्रता का तरु धीरे-धीरे बढ़ता है,

    सहिष्णुता में टिकता है,

    शीघ्रता उसे अप्रिय है।

    धीरे अगोचर हो बढ़ता है।

    धूप, बरसातों, कुहासों का वह साक्षी है,

    पत्ते झर जाते हैं

    कोकिल-कूजन से किसलय जगते हैं।

    शाखाओं के बीच,

    पत्तों की ओट में,

    घोंसले बनाने के लिए

    वह शाखा-कर पसार कर

    चिड़ियों को पास बुलाता है।

    बकरियों, गायों को छाया देता है

    थके पथिकों के पसीने को

    शाखा-पंखों को चलाकर सुखाता है।

    धरा के अँधेरे में

    बीच से जन्म लेकर

    धीरे-धीरे उजाले में आकर भी

    वह अपने दोनों पंख खोलकर

    झट नहीं उड़ता है अमर है।

    भिन्न दिशाओं में फैलने पर भी

    शाखाएँ

    एक दूसरी को समझकर

    मनोहर सम्मेलन में

    मिठास बिखेर देती हैं।

    अदृश्य जड़ें

    गहराई में पहुँच जाती हैं

    तना, शाखाएँ, टहनियाँ और पत्ते

    रचते हैं मनहर संगीत!

    जाने कितने नूपुर-निक्वण!

    सुरम्य नृत्य को जगा देते हैं,

    भिन्नता में एकता मुखरित हो उठती है

    स्वर अनेक, पर संगीत एक है

    शिखर अनेक, पर पर्वत एक है

    एक दूसरे से मिलकर

    अंतर्निहित एकता का करते हैं दिग्दर्शन।

    मित्रता के वृक्ष को

    विशेष ममता की अपेक्षा है

    जो अगोचर है।

    खोदना, पानी देना

    खाद डालना भी आवश्यक है।

    बहुतों के साथ मित्रता अलग है,

    एकांत की मित्रता श्रेष्ठ है,

    खुरदुरापन को मिटाने

    दोषों को भूलने

    मूक हृदयों के मिलने के लिए

    अपेक्षा है

    एकांत की, अवकाश की, सहिष्णुता की।

    एकांत

    मित्रता को बढ़ा देता है

    आत्मीयता को धार देता है

    अभिमान को ताप देता है।

    ऐसे एकांत दुर्लभ हैं,

    जहाँ भूलें नहीं होती हैं,

    जहाँ अँधेरे का लाभ उठाया नहीं जाता है

    ऐसे एकांत ही

    मित्रता के आभूषण हैं,

    वे ही मूल संपदा हैं,

    आवश्यक होने पर

    काम आनेवाली बचत है, खान है।

    ईमानदारी आवश्यक है मित्रता के लिए

    कपट व्यवहार, आडंबर

    प्रगल्भों के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है

    जो शीघ्र ही हल्के हो जाते हैं।

    सत्य से दूर हो जाते हैं

    क्षणभंगुर हैं।

    यह शुष्क वाचालता रह जाती है

    अभिनय बन जाता है।

    ताज-शृंगार चमक-दमक

    सत्य के साधन नहीं हैं,

    आडंबर-हीन छाया में ही

    मित्रता का तरु बढ़ता है।

    उदारता दिखाना चाहिए

    छोटी भूलों को भूलना चाहिए,

    उन्हें यादों की थैली में डालकर

    खिल्ली नहीं उड़ाना चाहिए,

    दो व्यक्ति एक मत के नहीं हो सकते

    उनके भाव और स्वभाव

    अलग-अलग हो सकते हैं।

    हृदयों के मिलने पर भी

    अलग हो सकते हैं

    उनकी आकांक्षाएँ और उनके सपने।

    ऐसा सोचना भूल है

    कि दोनों एक हो जाएँगे।

    अवांछनीय हैं

    व्यर्थ वाद-विवाद।

    अनुचित है

    अप्रिय विषयों को छेड़ना,

    मित्रों की आलोचना करना।

    झूठी प्रशंसा नहीं करनी है,

    दूसरों को थोड़ी जगह छोड़ देनी है,

    ईर्ष्या करते रहने पर

    मित्रता का तरु जल जाता है।

    कई काँटों के गढ़ों को पार करते हुए

    कई रोड़ों को रौंदते हुए

    सभी के प्रति आदर दिखाते हुए

    विशिष्ट गौरव दिखाते हुए

    सहिष्णु होकर पालना होगा

    मित्रता के पौधे को।

    तभी वह कुछ दिन टिक सकता है

    मित्रता संप्राप्त भाग्य है

    जिसका संरक्षण होना है

    जिससे मकरन्द रिस जाता है

    और अमृत का सोता बह जाता है।

    मित्रता अमूल्य वरदान है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लोकालोक (पृष्ठ 15)
    • रचनाकार : बी. गोपाल रेड्डी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1989

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