दोस्त का आना

dost ka aana

विनय सौरभ

विनय सौरभ

दोस्त का आना

विनय सौरभ

और अधिकविनय सौरभ

    रेल चली गई है

    उसका अंतिम सिरा देखकर लौट रहा हूँ कमरे पर

    दोस्त का चेहरा

    छूट गया है मेरे भीतर!

    चाहता था कि वह कुछ दिन और रहे

    हमने मिलकर कई रोज़ बनाई थी रसोई

    उसकी बातें तैर रही हैं भीतर

    हम कई रोज़ जगे रहे सुबह तक

    गप्प के अंतहीन सिलसिले में

    वह कहता था :

    तुम्हारे कमरे से हरे पहाड़ और रेल लाइन दिखती है

    तुम कितने भाग्यशाली हो!

    तुमने कविताएँ लिखनी क्यों छोड़ दीं!

    उसका संग-साथ कितना अच्छा था

    पर उसके सिगरेट के धुएँ ने कितना परेशान किया मुझे

    यह बात मैं उससे कभी कह नहीं सका!

    वह फिर कब आएगा, पता नहीं!

    वक़्त अब इतनी मोहलत किसे देता है!

    दस बरस पहले

    उसने कहा था एक दिन

    गाँव के बाहरवाले पुल पर बैठते हुए :

    हम लोग हर साल मिलेंगे!

    कमरे का दरवाज़ा खोलता हूँ

    धुएँ की बास बची है

    ओह! उसका एश-ट्रे छूट गया है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : विनय सौरभ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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