बबूल

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नीलोत्पल

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नीलोत्पल

और अधिकनीलोत्पल

     

    एक

    सभ्यता के बीच से उठकर 
    सुनसान पथों 
    जंगलों 
    और गाँव से बाहर
    अपनी ही बनाई पगडंडी पर चलकर
    हर घोषणा और आडंबर से बचते हुए
    वह संयत हो चुका है
    उसे मालूम है उसकी शाखों पर काँटे हैं
    वह उतनी ही छितराता है अपनी टहनियाँ कि
    बचा रहे पंछियों के बीच यक़ीन 

    अपनी नन्हीं पत्तियों के मार्फ़त जताता है कि
    लगातार उनका झरना बारिश जैसा है 
    फिर चाहे काँटों से होकर गुज़रा जाए
    भींग जाता है अमान्य सब कुछ

    जैसे ऋतुएँ बदलती हैं
    बदल लेता है वह भी अपनी तमाम परिस्थितियाँ 
    और अगठित होते हुए भी
    देखे जा सकते हैं बया के सुंदर घोंसले

    जहाँ हाथ पर हाथ नहीं रखा जा सकता
    ऐसी अस्वीकृति के बावजूद 
    मौजूद है उसके कोटर में
    पीले जर्द होने से बचे, जड़ों का हरापन समेटे सपने

    बालु की तरह धॅंसते हुए ईमान में 
    वह चुभा रहा है काँटे 
    अलख जगाता निर्लिप्त भाव की तरह

    दो

    वे छुए जा सकते हैं
    हमारी अस्वीकृति के बिंदु पर
    उनकी देह रगड़ से महसूस होगा
    कुछ गाढ़ा लिसलिसा-सा पदार्थ 
    उतर रहा है हमारे बीच
    ठीक वहाँ जहाँ दुख की हर टीस उतर आती है
    वह इसी तरह आता है हमारी ज़िंदगी में
    बावजूद इसके कि
    अन्यमनस्क 
    समय से विरक्त
    अलहदा इंसानों से
    क़तारबद्ध खड़े हैं वे
    बेहद शालीनता से 
    पथ के दोनों ओर

    तीन

    उनकी भूमिका पर शक नहीं किया जा सकता 
    वे ऐसे समय के शरणार्थी हैं 
    जहाँ पहचान के लिए इंसानों ने
    अपने होने के अर्थ बदल लिए हैं
    और वे भरसक चेष्टा के बाद भी
    मुक्त नहीं हो पाए काँटेदार छवि से
    लेकिन यह अप्रयोजनीय है कि
    घनीभूत उलाहना के ताप से
    निथारे जा चुके है उसके उपांग
    बेहद सहिष्णु, प्रशांत निवेदक!
    जैसे बदलना ही नहीं चाहते
    देह का काला और खुरदुरापन

    वे ख़ुश हैं कि
    समय के साथ बढ़ रहे हिंस्त्र नाख़ूनों ने
    चींथा नहीं है उनका विश्वास 
    तितलियाँ अब भी लौटती हैं
    उनकी पनाहगाह में

    चार

    जब सारे पेड़ झर रहे हो
    उसमें फूट रही हैं नई कोंपले
    उस समय जब तुलनात्मक रूप से
    देखने में हारा हुआ लगता है जीवन
    वह समूची आबोहवा में
    मौजूद हैं हरे रंग की तरह

    अपनी अदना शख़्सियत  
    जिसमें नहीं मिलती चीज़ों की तरह व्याप्त
    भव्यता
    आडंबर और क़िस्सागोई
    एक साफ़-सुधरे लहज़े में
    तने से टपकते गोंद-सी छोटी प्रक्रिया में
    मिल जाती है उसकी हक़ीक़त

    जगह पर स्थित, दिशाओं के घनत्व में
    विस्तीर्ण 
    पतली टहनियों का उलझापन
    गीतों से निकली लय का पीछा करते हुए 
    हो जाता है अनंत

    उसी अनंत से लौटता है वह
    ढेरों पंछियों के बीच
    विनीत शब्द की तरह।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नीलोत्पल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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