बथुवे जैसी लड़कियाँ

bathuwe jaisi laDkiyan

रूपम मिश्र

रूपम मिश्र

बथुवे जैसी लड़कियाँ

रूपम मिश्र

और अधिकरूपम मिश्र

    वे लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं

    जैसे गेहूँ के साथ बथुआ

    बिन रोपे ही उग आता है

    ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ

    बेटों की चाह में अनचाहे ही जाती हैं!

    पीर से जड़ी सुधियों की माला

    पहन कर वे बिहँसती रहीं!

    ख़ुद को खरपतवार मान

    वे साध से गिनाती रहीं

    कि भाई के जन्म पर क्या-क्या उछाह हुआ

    और गर्व से बताती रहीं

    कि कितने नाज नखरे से पला है :

    हम जलखुंभियों के बीच में ये स्वर्णकमल!

    बिना किसी डाह के वे प्रसन्न रहीं

    अपने परिजनों की इस दक्षता पर

    कि कैसे एक ही कोख से...

    एक ही रक्त-मांस से

    और एक ही

    चेहरे-मोहरे के बच्चों के पालन में

    दिन-रात का अंतर रखा गया!

    समाज के शब्दकोश में दुःख के कुछ स्पष्ट पर्यायवाची थे

    जिनमें सिर्फ़ सटीक दु:खों को रखा गया

    इस दुःख को पितृसत्तात्मक वेत्ताओं ने ठोस नहीं माना

    बल्कि जिस बेटी की पीठ पर बेटा जन्मा

    उस पीठ को घी से पोत दिया गया

    इस तरह उस बेटी को भाग्यमानी कहकर मान दे दिया!

    लल्ला को दुलारती दादी और माँ

    लल्ला की कटोरी में बचा दूध-बताशा उसे ही थमातीं!

    जैसे गेहूँ के साथ बथुआ भी अनायास सींच दिया जाता है

    पर प्यास गेहूँ की ही देखी जाती है!

    अपने भाग्य पर इतराती

    वे लड़कियाँ कभी देख ही नहीं पाईं

    कि भूख हमेशा लल्ला की ही मिटाई गई!

    तुम बथुए की तरह उनके लल्ला के पास ही उगती रहीं

    तो तुम्हें तुरंत कहाँ उखाड़ कर फेंका जाता!

    इसलिए दबी ही रहना

    ज़्यादा छतनार होकर

    बाढ़ मार देना उनके दुलरुआ की!

    जो ढेरों मनौतियों और देवी-देवता के अथक आशीष का फल है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रूपम मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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