वर्षगाँठ

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कैलाश वाजपेयी

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कैलाश वाजपेयी

और अधिककैलाश वाजपेयी

    तुम मुझे दुनिया की भट्ठी में झोंक कर उदासीन हो गए!

    मेरे सब युवावर्ष खो गए।

    रात के पत्थर पर नींद की स्लेट तोड़ता हुआ

    कब तक मैं हँसूँ चीख़-चीख़ कर

    कब तक मैं ऊर्णनाभ की तरह

    गिरूँ-चढ़ूँ अपने ही धुएँ के सलीब पर

    मुझसे चलाए नहीं चलता

    पिता—

    तुम मुझे क़ब्र में ढकेल कर

    स्वयं नम्र शय्या पर सो गए!

    मैंने कब चाहा था जन्म हो

    एक पर एक बेहयाकोश मिलते चले जाएँ

    कुछ बिना रीढ़ के लोग मुझे रौंदें

    मित्र या पड़ोसी कहलाएँ!

    कहीं बिना पहुँचे

    चलते चले जाने की यह भेड़-यात्रा

    मन की मिट्टी खाते हुए

    ढेर-ढेर यादों के केंचुए

    वक़्त की सुरंग में तमाम हवा फेंकते

    फेफड़ों की एकरस मिमियाहट

    कोई धमाका

    कोई आहट

    कितना भयावह है खेल यह तुम्हारा

    दुबारा-तिबारा—

    लगता है जैसी है आज दुनिया

    सँकरी-बेहूदी, नंगी

    तुम्हारे बिना भी हो सकती थी!

    मकान बनवा कर

    बच्चों की फ़सल खड़ी करके

    बीमा करवा कर

    अथवा फिर हर गोरखधंधा—

    जिसे लोग करते हैं

    तुम्हारे बिना भी कर सकते थे

    पागुर करते हुए—

    कहीं भी मज़े से मर सकते थे

    पर किसी ताज़े गिरे घर में

    जैसे सभी कुछ होता है

    सिर्फ़ वहाँ ‘घर’ नहीं होता

    मैं अपने होने के लिए गुनहगार हूँ

    यों कभी होंठों पर मेरे

    अपशब्द नहीं आता

    अपनी किसी बात का

    गर्व नहीं मुझको

    रोटी कमाने के बाद बचे वक़्त में

    फ़िल्म नहीं देखता

    रमी नहीं खेलता

    घृणा क्या करूँगा

    जब माने ही देता नहीं

    चीज़ों, लोगों या घटनाओं को

    मंदिर में जाकर धक्का नहीं देता महिलाओं को

    इस सबके बाद भी

    मेरा एक नाम है

    मेरी एक जाति है

    मेरा एक देश है

    मेरा अस्तित्व किसी का आभारी है

    अजब लाचारी है

    नारी—

    उपस्थित है तब भी समस्या है

    अनुपस्थित है तब भी समस्या है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संक्रांत (पृष्ठ 66)
    • रचनाकार : कैलाश वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2003

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