पिता का चश्मा

pita ka chashma

मंगलेश डबराल

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पिता का चश्मा

मंगलेश डबराल

और अधिकमंगलेश डबराल

    बुढ़ापे के समय पिता के चश्मे एक-एक कर बेकार होते गए

    आँख के कई डॉक्टरों को दिखाया विशेषज्ञों के पास गए

    अंत में सबने कहा आपकी आँखों का अब कोई इलाज नहीं है

    जहाँ चीज़ों की तस्वीर बनती है आँख में

    वहाँ ख़ून का जाना बंद हो गया है

    कहकर उन्होंने कोई भारी-भरकम नाम बताया

    पिता को कभी यक़ीन नहीं आया

    नए-पुराने जो भी चश्मे उन्होंने जमा किए थे

    सभी को बदल-बदल कर पहनते

    आतशी शीशा भी सिर्फ़ कुछ देर अख़बार पढने में मददगार था

    एक दिन उन्होंने कहा मुझे ऐसे कुछ चश्मे लाकर दो

    जो फ़ुटपाथों पर बिकते हैं

    उन्हें समझाना कठिन था कि वे चश्मे बच्चों के लिए होते हैं

    और बड़ों के काम नहीं आते

    पिता के आख़िरी समय में जब मैं घर गया

    तो उन्होंने कहा संसार छोड़ते हुए मुझे अब कोई दुःख नहीं है

    तुमने हालाँकि घर की बहुत कम सुध ली

    लेकिन मेरा इलाज देखभाल सब अच्छे से करते रहे

    बस यही एक हसरत रह गई

    कि तुम मेरे लिए फुटपाथ पर बिकने वाले चश्मे ले आते

    तो उनमें से कोई कोई ज़रूर मेरी आँखों पर फिट हो जाता।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मंगलेश डबराल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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