दस हज़ार की नौकरी और दांपत्य जीवन की एक सफल रात

das hazar ki naukari aur dampatya jiwan ki ek saphal raat

आर. चेतनक्रांति

आर. चेतनक्रांति

दस हज़ार की नौकरी और दांपत्य जीवन की एक सफल रात

आर. चेतनक्रांति

और अधिकआर. चेतनक्रांति

     

    अक्सर यह गुम रहती है
    पीली, गुलाबी, हरी, नीली या जाने किस रंग की एक लट की तरह
    उस धूसर सफ़ेद में
    जो सात रंगों के मंथन में सबसे अंत में निकलता है...
    और 
    सबसे अंत तक रहता है...

    आप अगर ढूँढ़ने निकलें तो इसे नहीं पा सकते 

    लेकिन कभी-कभी अकस्मात् यह घटित हो जाती है
    ज़ाहिर है पूर्वजन्मों के सद्कर्मों और वर्तमान में अर्जित 
    वस्तुगत आत्मविश्वास की इसमें बड़ी भूमिका होती है

    यह कहानी ऐसी ही एक गुमशुदा रात की है
    जो शाम छह बजे शुरू हुई, और कुम्हार के चक्के की तरह सुबह छह बजे तक धुआँधार चली

    बेशक जो आपके सामने आएँगे, वे चित्र उस रफ़्तार का पता नहीं देते
    जो अक्सर ठोस और धारदार चित्रों के पीछे अकेली सिर धुनती रहती है

    एक

    आप देख रहे हैं
    यह एक पत्नी है
    सवेरेवाली गाड़ी जिससे छूट गई थी
    पूरा दिन इसने अभारतीय काम-कल्पनाओं 
    और बच्चे के सहारे काटा

    अब सूरज डूब रहा है
    सुबह जिनको जाते देखा था
    अब वे आते दिख रहे हैं
    ख़ुशी-ख़ुशी धक्का-मुक्का करते हुए
    वे अपनी ज़मीनों और गलियों में उतर रहे हैं

    देखिए पति भी आ रहा है
    उसकी कुहनी ख़ंजर है और पीठ ढाल 
    लेकिन यह तो रोज़ ही होता है
    आज उसके हाथ में एक तरबूज भी है
    गर्मियों का फल जो शीतलता देता है
    लेकिन सिर्फ़ यही नहीं
    नि:संदेह आज उसके पास कुछ और भी है
    देखिए
    पत्नी के प्रेमियों से 
    आज वह ज़रा भी घबराया नहीं 
    सारे उसकी बग़ल से बिना सिर उठाए गुज़र गए
    वह भी, वह भी... और वह भी जिसके बिना मुन्ना एक पल नहीं ठहरता

    दो

    रात बरसों की सोई भावनाओं की तरह जाग रही है
    और नींद में छेड़े साँप की तरह
    कुंडली कस रही है...
    पत्नी जैसा कि आप देख ही चुके हैं
    अभी खूँटा तुड़ाने पर आमादा थी, 
    धीरे-धीरे लौट रही है...
    उसके भीतर उस मुर्ग़े के पंख एक-एक उतरकर 
    तह जमा रहे हैं जो रोज़ पिछले रोज़ से एक फ़ुट ज़्यादा उड़ता है
    और हवा में मारा जाता है, 
    अगले दिन फिर उड़ता है और फिर मारा जाता है 

    संकुचित, सलज्ज और बिद्ध... मादा ‘बाक़ी कल’ के सुरक्षित हो
    अभी अपने प्रकृति-प्रदत्त नर के लिए तैयार हो रही है...

    देखो 
    पति आज टहल नहीं रहा
    बैठा घूरता है
    उसकी नंगी जाँघों पर तरबूज और हाथ में चाक़ू है
    आँखों में आमंत्रण
    जिसे आज कोई नहीं ठुकरा सकता 
    इस आमंत्रण के बारे में सुनते हैं कि 
    जिनके पूर्वजों ने एक हज़ार साल सतत् त्राटक किया हो...
    यह उन्हीं की आँखों में होता है

    पत्नी आख़िरी सीढ़ी पर आ चुकी है
    बैठती है
    वह कंघी से अपने पाप बुहार रही है, 
    जिनको उसने
    दिन-भर सोच-सोचकर अर्जित किया था
    पूर्णिमा का चाँद ठीक ऊपर चक्के की तरह घूम रहा है
    घूँ... घूँ... घूँ...
    पति को छुटपन से चाँद का शौक़ रहा है
    घूमता चाँद उसकी आदिम इच्छाओं को जगाया करता है

    तीन

    स्त्री के भीतर चाँदनी का ज्वार उठ रहा है
    स्वच्छ, धवल, शुभ्र पतिव्रत का कीटाणुनाशक फेन
    उसकी देह के किनारों से
    फकफकाकर उड़ रहा है, जैसे हाँडी से दाल
    पुरुष चीख़ता है और चाँद को देखकर
    कहता है... शुक्रिया दिल्ली!
    कहीं कुछ गरज रहा है
    मगर यहाँ शांति है
    बहुत तेज़ लहरें हैं और
    शीशे की भारी पेंदेवाली नाव धीरे-धीरे डोल रही है

    हवा के खसखली पर्दे में एक कहानी बूँद-बूँद उतर रही है।
    यह विजयगाथा है पुरुष की
    पिघले मोम की तरह वह
    ठहर-ठहरकर उतर रही है
    और
    स्त्री मोटे कपड़े की तरह उसे सोख रही है
    और वेतन दस हज़ार
    मंजू मुझे यक़ीन था, यक़ीन है और यक़ीन रहेगा
    तुम ऐसे नहीं जा सकतीं
    एक फ़्रिज और एक कूलर का अभाव
    और दिल्ली,
    हमारे प्यार को नहीं खा सकते
    जब तक मैं हूँ
    हूँ... हूँ... हूँ... हूँ...
    चील की तरह आकाश में पहुँची
    और बग़ुले की तरह हौले-हौले उतरी स्त्री के ऊपर यह हुंकार
    बिल्ली का नवजात बच्चा
    जैसे अपने नंगे, गुलाबी गोश्त से साँस लेता है
    वैसे ही पत्नी
    रोमछिद्रों से इसे ग्रहण करती है
    ‘नाक, कान और आँख
    ये कितनी पुरानी चीज़ें हैं जीवन के मुक़ाबले’—वह कहती है 
    और खुल जाती है
    ‘सफल पति का प्यार’
    तारें भरे आसमान में मस्ती से टहलते हुए वह
    अपने आपसे कहती है 
    ‘सचमुच इस कालातीत अनुभव के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, मित्रो’

    चार

    पूरब में पौ फट रही है और
    दिलों में दो-दो नई, हरी पत्तियाँ सशंक उठ खड़ी हुई हैं
    पुरुष सूरज के लाल गोले को जाँघों पर रखता है
    और उसमें से एक चौकोर टुकड़ा काटकर
    पत्नी को देता है
    ...चखो, अब यह हमारा है
    यह सब कुछ हमारा है
    स्त्री का क्षण-क्षण आकार बदलता मांस
    पति की देह में नए सिरे से जड़ें ढूँढ़ता है

    तरबूज के गूदे से लथपथ दो नंगे बदन
    गली के ऊपर मुँडेर पर आते हैं
    उजली हवा में थरथराते हैं
    भयभत जनसाधारण की पुतलियों में सरसराते हैं
    और एक-दूसरे को हँसी देते हुए कहते हैं
    अब यह सभी कुछ हमारा है

    स्रोत :
    • पुस्तक : शोकनाच (पृष्ठ 39)
    • रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2004

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